Atmadharma magazine - Ank 041
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४७३ः ८पः
जिसे मोत है उसको है मुझको कयाअजर हूं अमर हूं न मरता कभी
मुझे तो नहीं फेर भय मुझको कया।।चिदानंद शाश्वत न डरता कभी।।
मेरा नाम तो जीव है जीव हैकि संसारके जीव मरते डरे
चिरंजीव चिरकाल चिरजीव हूं।।परम पदका शिवलाल वंदन करें।।
* * * * * * *
श्री सर्वज्ञाय नमः।। ।। श्री वीतरागाय नमः
श्रावण वद १३ थी भादरवा सुद प सुधीना धार्मिक दिवसो दरमियान थयेला श्री समयसारजी गाथा १३ तथा
श्री पद्मनंदी पंचविंशतिका शास्त्रना ऋषभजिनस्तोत्र उपरनां
व्याख्यानो अने चर्चाओनो टूंकसार–लेखांकः प
(आ लेखना नं. ७२ सुधीना फकरा अंक ४०मां आवी गया छे. त्यार पछी अहीं आपवामां आवे छे.)
(७३) आचार्यदेवे अनेक प्रकारे भगवाननी भक्ति करी. हवे भक्तिना विकल्पने तोडीने स्वरूपमां
समावानी भावना करतां आचार्यदेव कहे छे के, हे नाथ! आत्मस्वभाव अनंतगुण स्वरूप छे, आ विकल्प द्वारा हुं
केटलाक गुणो कही शकुं? विकल्प द्वारा आत्मा खीलतो नथी. सरस्वती जे वीतरागनी वाणी तेना द्वारा पण केवळी
भगवानना गुणो पूरा कही शकाय नहि.
हे त्रण भुवननी स्तुतिने पात्र जिनेन्द्र! आ जगतमां सर्वोत्कृष्ट वाणी सरस्वती आपनी स्तुति करे छे ते
पण जो आपना गुणोना पारने पामी शकती नथी तो अन्य जे मुर्ख पुरुष (–छद्मस्थ प्राणी) ते स्तुति वडे आपना
गुणोना पारने केम पामी शके? श्रीमद् राजचंद्रजी पण कहे छे के–
जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां...
कही शक्या नहि ते पण श्री भगवान जो...
तेह स्वरूपने अन्य वाणी तो शुं कहे...
अनुभव गोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो...अपूर्व. २०
हे नाथ! हे अनंतगुणभंडार आत्मन्! जेमने केवळज्ञान प्रगटयुं एवा वीतरागनी दिव्यवाणी पण तारा
स्वरूपने परिपूर्णपणे कहेवा समर्थ नथी, तो पछी अन्यनी वाणीथी तो शुं कहेवाय? ते तो मात्र अनुभवगम्य छे.
सरस्वती पण आत्माना स्वरूपने न पामी शके एटले के वाणी तरफना विकल्प वडे आत्मानो स्वभाव खीलतो
नथी, पण वाणीनो विकल्प छोडीने आत्मानो अनुभव थाय छे, तेनी अहीं भावना छे.
(७४) कोईना अल्प गुणने मलावीने विशेषपणे कहेवा तेने जगतमां स्तुति कहेवाय छे परंतु हे प्रभो!
तारामां जेटला गुणो छे तेटला पण अमे वाणीथी पूरा वर्णवी शकता नथी, माटे वाणी द्वारा तारुं स्तवन पूरुं थतुं
नथी. तारा अनंत गुणोना अपार भावने आ स्तुतिना विकल्परूप हदवाळो राग पहोंची शकतो नथी. माटे अमे
स्तुतिना विकल्पने तोडीने, आ राग टाळीने स्वरूपनी निर्विकल्प श्रेणी वडे ज्यारे केवळज्ञान प्रगट करशुं त्यारे ज
स्वभावनो पार पमाशे.
(७प) आमां राग अने स्वभावनुं भेदज्ञान जणाव्युं छे. भले, स्तुतिनो राग आवे छे पण तेने
स्वभावना साधन पणे वीतरागना भक्तो मानता नथी. राग थाय छे छतां तेनाथी कदापि वीतरागता थती नथी.
वाणीमां सर्वोत्कृष्ट एवी सरस्वती पण तारा गुणो वर्णवतां हारी जाय छे. तो पछी अमे छद्मस्थ पामर जीव तेने
केवी रीते वर्णवी शकीए? आ स्तुतिकार पोते महान संत निर्ग्रंथ मुनि छे. छतां भगवान पासे केटली पामरता
वर्णवे छे! जेने पूर्ण स्वभावनो विनय प्रगटयो होय तेने अधूरी पर्यायनो अहंकार केम होय? पंचमआराना संत
मुनि केवळज्ञान लेवानी तैयारीवाळा छे पण हजी वच्चे एक भव बाकी छे तेथी केवळ माटे झंखे छे. आचार्यदेव आ
स्तुति करतां खरेखर तो पोताना स्वभावनुं बहुमान लावीने केवळज्ञाननी भावना वधारे छे. हे नाथ! तारा अपार
केवळज्ञान पासे तो अमे मूर्ख छीए, अमारा जेवा छद्मस्थ जीवोना ज्ञान उपर हजी आवरण छे, ज्ञाननो पुरुषार्थ
ओछो छे, छतां तमारी ओथ लईने–तमारा जेवो ज परिपूर्ण स्वभाव स्वीकारीने तेना जोरे कहीए छीए के अधुरुं
ज्ञान के नबळो पुरुषार्थ ते अमारुं स्वरूप नथी. केवळज्ञान जेटलो ज अमारो स्वभाव छे. आ रीते द्रव्य अने
पर्यायनी संधि वडे पूर्णता प्रत्येनो पुरुषार्थ उपाडे छे.