Atmadharma magazine - Ank 041
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः ८६ः आत्मधर्मः ४१
(भादरवा सुद ४ समयसार गाथा १३)
(७६) कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र एवा असत् निमित्तोने मानवा ते तो बहारनुं स्थूळ असत्य छे अने अंतरमां
विकल्प वडे लाभ थाय एवी मान्यता ते पण असत् छे, ते सूक्ष्म मिथ्यात्व छे. कुदेव–कुगुरु–कुधर्मनी मान्यतारूप
बहारनुं स्थूळ असत्य छोडवानी वात पण जेने कठण पडे छे ते जीव अंतरना विकल्पोथी रहित आत्मानी श्रद्धा केम
करशे? हजी खोटा निमित्तोनी मान्यता पण जे छोडता नथी ते निमित्तोनी अपेक्षा रहित निरपेक्ष स्वभावने तो केवी
रीते स्वीकारशे? जेनामां एक पाई आपवानी पण ताकात नथी ते लाखोनां दान केम करशे? मांसभक्षण वगेरे सात
व्यसनोना आदर करतां कुदेव–कुगुरु–कुधर्मना आदरनुं पाप वधारे छे एम ज्ञानीओए कह्युं छे. आत्माना
स्वभावनी विपरीत मान्यताने पोषण आपनारा कुदेवादिने मानवा तेना जेवुं मोटुं पाप जगतमां नथी. कुदेवादिना
दोष तो तेमनी पासे रह्या परंतु तेमने मानवाथी पोते पोताना स्वभावनी विराधना करीने आत्मानो घात करे छे.
जेणे सत्य स्वभावथी विपरीत मान्यता करी तेणे आत्माना अनंत गुणोनो, अनंत केवळी–तीर्थंकरोनो, संत
मुनिओनो ने ज्ञानीओनो अनादर कर्यो अने तेना वेरी कुदेवादिनो आदर कर्यो, आवी जे अनंत ऊंधाईनो आदर ते
ज अनंत पाप छे.
(७७) पंडितप्रवरश्री टोडरमल्लजी मोक्षमार्ग प्रकाशकमां कहे छे के–
“कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र सेवनमां मिथ्यात्व भावनी पुष्टता थती जाणीने अहीं तेनुं निरूपण कर्युं छे. श्री
अष्टपाहुडमां पण कह्युं छे के–जे कोई लज्जा, भय के मोटाईथी पण कुत्सित् देव धर्मलिंगने वंदन करे छे ते मिथ्याद्रष्टि
छे. माटे जे मिथ्यात्वनो त्याग करवा इच्छे छे ते कुदेव–कुगुरु–कुधर्मनो पहेलां ज त्यागी थाय...वळी कुदेवादिकना
सेवनथी जे मिथ्यात्वभाव थाय छे ते हिंसादि पापोथी पण महान पाप छे. कारण के एना फळथी निगोद–नर्कादि
पर्याय प्राप्त थाय छे, त्यां अनंतकाळ सुधी महा संकट पामे छे, तथा सम्यग्ज्ञाननी प्राप्ति पण महा दुर्लभ थई जाय
छे.”
(मोक्षमार्ग प्रकाशक पा. १९८)
(७८) वाणीया चारे तरफना हिसाब गणे पण धर्मना बहाने ठगाय छे. बोकडा कापवाना काममां तो हिंसा
भासे अने तेमां साथ न आपे परंतु मिथ्यात्वनुं महापाप भासतुं नथी अने ऊंधी मान्यताने पोषनारा कुदेवादिने
साथ आपे छे. परंतु मिथ्यात्वना सेवनमां अनंत बोकडा कापवानो भाव भर्यो छे. बाह्य क्रियानी वात नथी पण
अंतरमां ऊंधा परिणामनुं महा पाप छे. सर्वज्ञथी विपरीत एक पण मान्यता माने, के सर्वज्ञ सिवाय कोई पण देवने
साचा माने तो तेमां अनंत जन्ममरण छे.
(७९) जेम साचा–खोटानी परीक्षा कर्या वगर कोई माणस हीरा–रत्न वगेरे लेतो नथी, तेम धर्म माटे
देव–गुरु–शास्त्र ए त्रण रत्नो छे, तेमां साचा–खोटा वच्चे जेने विवेक नथी–परीक्षा नथी ते महा अज्ञानी छे, तेने
धर्मनी दरकार नथी. कुदेव–कुगुरु–कुधर्मना सेवननुं जे महापाप कह्युं ते महापाप छोडया पछी अने साचा देव–गुरु–
धर्मनी ओळखाण कर्या पछी पण जे नवतत्त्वना विकल्प ऊठे तेनी श्रद्धाने छोडीने केवळ एक चैतन्यमात्र
आत्मस्वभाव सन्मुख थईने प्रतीति करवी ते सम्यग्दर्शन छे ए वात समयसारजी शास्त्रमां छे. परंतु प्रथम कुदेव–
कुगुरु–कुधर्मनुं सेवन छोडया वगर ए वात समजवानी पात्रता आवे नहि. माटे जेणे आत्मस्वभावनी समजण
करीने धर्म करवो होय तेणे प्रथम सत्देव–सद्गुरु–सत्शास्त्र कोण अने कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र कोण ते ओळखीने कुदेव–
कुगुरु–कुशास्त्रना सेवनने सर्वथा छोडी देवुं. कुदेवादिना सेवनथी मिथ्यात्वना महापापनुं पोषण थाय छे अने अनंत
संसार वधे छे.
(८०) कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र ते आत्माना साक्षात् घातक छे एम मान्या विना आत्मकल्याणना रस्ते
किंचित् चडी शकाय नहि. जगतना कार्योमां ओळखाण कर्या पछी माने छे अने आत्माना कार्यमां गोटा चलावे ते
चाले नहि. भूलने लीधे ज अनंत जन्ममरणमां जीव रखडे छे माटे भूल टाळीने निर्दोष अने निःशंक समजण करवी
जोईए.
(८१) प्रश्नः–कुदेव, कुगुरु, कुधर्मनुं चिह्न शुं?
उत्तरः–रागथी धर्म मनावे, आत्माने जडनो कर्ता ठरावे, परथी लाभ–नुकशान मनावे इत्यादि बधा कुदेव,
कुगुरु, कुधर्मनां चिह्न छे.
(८२) आर्य जीवो हिंसादिना परिणामोने तो पाप तरीके समजे छे अने तेनो खेद करे छे, परंतु कुदेवादिनुं
सेवन करनार तो तेमां धर्म माने छे; ते ऊंधी मान्यतानुं त्रिकाळी पाप छे. हिंसा परिणाम करनार जो ते परिणामने
सारा माने तो तेमां ते ऊंधी मान्य–