Atmadharma magazine - Ank 041
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४७३ः ८७ः
तानुं त्रिकाळी पाप छे, केमके जेणे एक विकारी परिणामने सारा मान्या तेणे त्रणे काळना सर्वे विकारी परिणामने
सारां मान्या, ते ज अनंत पाप छे.
(८३) चक्रवर्तीने त्यां क्रोडो मण शाकनी बाह्य हिंसा थती होय छतां तेमां अल्प हिंसा छे केम के तेने
स्वभावनुं भान वर्ते छे. अने कुदेवादिने माननारो जीव त्यागी होय अने एक लीलोतरी पण हणतो न होय छतां
तेने असतना पोषणनुं अनंत पाप छे, ते निगोदना कारणने सेवी रह्यो छे. अने आत्मस्वभावना भान वडे सतने
सत् अने असतने असत् मानवाथी जेना ज्ञानमां विवेक थई गयो छे तेने पाप परिणाम वखते पण भेदज्ञान वर्ते
छे, तेथी ते मोक्षना कारणने सेवी रह्यो छे. कांई पाप परिणामने मोक्षनुं कारण कहेता नथी परंतु अंतरमां भेदज्ञान
वर्ते छे ते ज मोक्षनुं कारण छे.
(८४) आत्माना स्वभावनी ओळखाण करवा माटे देव–गुरु–शास्त्रनुं स्वरूप यथार्थ समज्या वगर ज्यां
त्यां माथा नमावशे तेने संसारनी दुर्गतिमां रखडवुं पडशे. धर्मना लोभे आखा आत्माने कुदेव पासे अर्पी देनार
धर्मने बदले उल्टुं पाप पोषे छे. मिथ्यात्व सिवायना बीजां पापो तो अनंतमां भागे छे. आत्माना शुद्ध स्वभावने
दयादि विकारीभाववाळो मनावे, जडनी क्रियाथी पुण्य–पाप मनावे, पुण्यमां धर्म मनावे, व्यवहार करतां करतां
परमार्थने पमाशे एम मनावे ते बधा मिथ्याद्रष्टि छे, आत्माना अनंत गुणोनो अनादर करनारा छे अने तेओ
अनंतकाळ सुधी महा संकट पामे छे.
(८प) जीवोने मिथ्यात्वथी छोडाववा अने साचुं आत्मभान प्राप्त कराववा माटे मिथ्यात्वनुं स्वरूप
स्पष्ट रीते वर्णव्युं छे. कोई व्यक्ति प्रत्ये ज्ञानीने द्वेष नथी पण सत्यने समजावतां असत्यने असत्य तरीके
बराबर कहेवुं पडे. जो सत्ने सत् तरीके अने असत्ने असत् तरीके न कहेवामां आवे तो जीव सत् असत्नो
विवेक करी शके नहि अने अनंत काळथी जे रीते असत्नुं सेवन करी रह्यो छे ते ज रीते चाल्या करे. माटे ज
ज्ञानीओ असत्नुं सेवन छोडाववा अर्थे कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रनो निषेध करे छे.
(८६) कोई जीव साचा देव–गुरु–शास्त्रने ओळखीने कुदेवादिनुं सेवन छोडे तो तेटलाथी कांई धर्म थई
जतो नथी. तेणे हजी निमित्त तरीके सत्ने स्वीकार्युं छे, तेमां हजी परावलंबन छे, तेथी पुण्य छे पण धर्म नथी. ज्यारे
ते परावलंबनने छोडीने स्वावलंबन वडे पोताना सत् स्वभावने श्रद्धा–ज्ञानमां स्वीकारे त्यारे अनंतकाळे नहि
प्रगटेल एवो अपूर्व धर्म प्रगटे छे. कुदेवादिने छोडया पछी अने साचा देवगुरुधर्मने ओळख्या पछी सम्यग्दर्शन कई
रीते प्रगटे तेनी वात आ तेरमी गाथामां चाले छे.
(८७) ‘जे कुत्सित धर्ममां लीन छे, कुत्सित पाखंडीओनी भक्तिवडे संयुक्त छे तथा कुत्सित तप करे छे ते
जीव कुत्सित अर्थात् माठी गति भोगववावाळो थाय छे. माटे हे भव्य! किंचित मात्र लोभ वा भयथी ए कुदेवादिनुं
सेवन न कर! कारण के एनाथी अनंतकाळ सुधी महादुःख सहन करवुं थाय छे, माटे एवो मिथ्यात्वभाव करवो
योग्य नथी. जैनधर्ममां तो एवी आम्नाय छे के, पहेलां मोटुं पाप छोडावी पछी नानुं पाप छोडाववामां आवे छे.
तेथी ए मिथ्यात्वने सात व्यसनादिथी पण महान पाप जाणी पहेलां छोडाव्युं छे. माटे जे पापना फळथी डरतो होय
तथा पोताना आत्माने दुःख समुद्रमां डुबाडवा न इच्छतो होय ते जीव आ मिथ्यात्व पापने अवश्य छोडो. निंदा
प्रशंसादिना विचारथी पण शिथिल थवुं योग्य नथी.’ (मोक्षमार्ग प्रकाशक पा. १९८)
(८८) आत्मानो सत् स्वभाव शुं अने कोण सत् कहेनार छे तेनी ओळखाण वगर धर्म थाय नहि.
अज्ञानपणामां अनंत काळ गयो हवे आत्माना भान माटे कुदेवादिने छोडो, केमके ते आत्मघातक छे. जो आत्मानी
दरकार होय तो जगतनी दरकार छोडी दे. जगत शुं बोलशे एनी सामे न जो, पण पोतानो आत्मस्वभाव शुं कहे छे
ते समज. जगतथी निरपेक्ष आत्मस्वभाव छे.
(८९) “कोई निंदे तो निंदो, स्तुति करे तो स्तुति करो, लक्ष्मी आवो वा जाओ, तथा मरण आजे ज थाओ
के युगांतरे थाओ! परंतु...निंदा प्रशंसादिना भयथी वा लोभादिकथी पण अन्यथारूप मिथ्यात्वप्रवृत्ति करवी योग्य
नथी. अहो! देव–गुरु–धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ छे, एना आधारे तो धर्म छे, तेमां शिथिलता राखे तो अन्य धर्म
केवी रीते थाय? घणुं शुं कहेवुं? सर्वथा प्रकारे ए कुदेव–कुगुरु–कुधर्मना त्यागी थवुं योग्य छे. कारण के कुदेवादिकनो
त्याग न करवाथी मिथ्यात्व भाव घणो पुष्ट थाय छे. अने आ काळमां अहीं तेनी