प्रवृत्ति विशेष जोवामां आवे छे माटे अहीं तेना निषेधरूप निरूपण कर्युं छे. तेने जाणी मिथ्यात्वभाव छोडी पोतानुं
कल्याण करो!” (मोक्षमार्ग प्रकाशक पा. १९९)
असत्संग ए कारणो छे;–जे कारणोमां उदासीन थया विना, निःसत्व एवी लोक संबंधी जप–तपादि क्रियामां साक्षात्
मोक्ष नथी,–परंपरा मोक्ष नथी,–एम मान्या विना, निःसत्व एवा असत् शास्त्र अने असद्गुरु–जे आत्मस्वरूपने
आवरणनां मुख्य कारणो छे तेने, साक्षात् आत्मघाती जाण्या विना जीवने जीवना स्वरूपनो निश्चय थवो बहु दुर्लभ
छे–अत्यंत दुर्लभ छे. ज्ञानी पुरुषनां प्रगट आत्मस्वभावने कहेतां एवा वचनो पण ते कारणोने लीधे जीवने
स्वरूपनो विचार करवाने बळवान थतां नथी. हवे एवो निश्चय करवो घटे छे के, जेने आत्मस्वरूप प्राप्त छे–प्रगट
छे ते पुरुष विना बीजो कोई ते आत्मस्वरूप यथार्थ कहेवा योग्य नथी, अने ते पुरुषथी आत्मा जाण्या विना बीजो
कोई कल्याणनो उपाय नथी. ते पुरुषथी आत्मा जाण्या विना आत्मा जाण्यो छे एवी कल्पना मुमुक्षु जीवे सर्वथा
त्याग करवी घटे छे.”
लोक गमे तेम बोले, तुं लोकसंज्ञाथी उदास थई जा; लोक मूके पोक. मरण समये जेम कोई सहायकारी नथी तेम तारा
स्वतत्त्वना आदर सिवाय आ जगतमां अन्य कोई शरणभूत नथी. माटे दुनियानी दरकार छोडीने आत्माना
कल्याणनो मार्ग ले. तुं सदा तारा आत्मस्वभावमां प्रीतिवंत था, तारा आत्मस्वभावमां ज संतुष्ट रहे अने तारा
आत्मस्वभावथी ज तृप्त रहे; एम करवाथी तारा आत्म– स्वभावनुं सुख तने अनुभवाशे. आत्मस्वभावनी
श्रद्धा–ज्ञान–स्थिरता सिवाय जप–तप वगेरे बाह्यक्रियामां धर्म नथी, तेनाथी साक्षात् के परंपराए मोक्ष नथी. कुदेव–
कुगुरुने साक्षात् आत्मघाती जाणवा; तेना सेवनथी सदंतर आत्माने अधर्मनी पुष्टि थाय छे. कुदेव–कुगुरु कांई आ
आत्माने नुकशान करता नथी परंतु ते असत् निमित्तो तरफनो पोतानो भाव ते मिथ्याभाव छे अने ते मिथ्याभाव
वडे आत्मानो घात थाय छे. माटे कुदेवादिनुं सेवन आत्माने आवरणनुं ज कारण छे, ते छोडया वगर जीवने पोताना
स्वरूपनो निर्णय थवो अशक्य छे. सत्स्वरूपने प्रगट कहेनारां ज्ञानीपुरुषोना वचनो सांभळवा छतां पण,
कुदेवादिना सेवनने लीधे, जीव पोताना स्वरूपनो विचार करतो नथी. जो एकवार स्वच्छंदने छोडीने–पोताना
आग्रहने दूर करीने ज्ञानी पुरुषे कहेला सत्स्वरूपनो यथार्थ विश्वास लावीने पोताना आत्मस्वरूपनी रुचि–श्रद्धा करे
तो अनंतकाळना जन्म–मरणनो अंत आवे.
रह्यो होय तेवानो धर्मबुद्धिए आदर न थाय. आ, व्यक्तिनो विरोध नथी परंतु पोताना सम्यग्ज्ञान खातर सत्
असत् समजवुं जोईए. साचा देव–गुरु–शास्त्रने माने ते पण पुण्य छे, नव तत्त्वोने समजे ते पण पुण्य छे, आटलुं
करे तो पण हजी मिथ्यात्व टळे नहि. ज्यारे देव–गुरु–शास्त्रथी भिन्न अने नवतत्त्वना भेदथी पण परमार्थे भिन्न
एवा एक अखंड चैतन्यस्वभावने अनुभवमां लईने तेनी प्रतीति करे त्यारे सम्यग्दर्शन प्रगटे छे. ए वात
समयसारनी तेरमी गाथामां समजावी छे. (तेरमी गाथाना प्रवचनो माटे जुओ ‘समयसार प्रवचनो’ भाग १.)
लक्षे राग थाय छे तथा नव तत्त्वोनो विचार करतां पण राग थाय छे, अने राग ते अभूतार्थ छे, तेथी देव–गुरु–
शास्त्रनी श्रद्धा के नवतत्त्वनी श्रद्धा ते साचुं सम्यग्दर्शन नथी. भूतार्थ स्वरूपना लक्षे राग टाळीने परमात्मस्वरूप
प्रगट थाय छे. ते परमात्मस्वरूप प्रगट करवा शुं करवुं? प्रथम देव–गुरु–शास्त्र अने नवतत्त्वना विचारनो राग
आवे खरो, पण तेना वडे एकत्व आत्मस्वभावनी प्राप्ति थती नथी एम निर्णय करीने, शुद्धनय वडे अर्थात्