Atmadharma magazine - Ank 042
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947).

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૧૦૨ આત્મધર્મઃ ૪૨
વર્ષ ચોથુંસળંગ અંકચૈત્રઆત્મધર્મ
અંક છઠ્ઠોે૪૨ર૪૭૩
अध्यात्म धाम सोनगढ
(સોનગઢ વિદ્વત્પરિષદનું ત્રીજું અધિવેશન થયું તેના પ્રમુખ પં. શ્રી કૈલાસચંદ્રજી સિદ્ધાંતશાસ્ત્રી હતા.
સોનગઢમાં પૂ. ગુરુદેવશ્રી પાસે આધ્યાત્મિક ચર્ચા તથા વ્યાખ્યાનોથી તેમને જે મહાન લાભ થયો છે તેનું તેઓએ
ઘણા જ હૃદયોલ્લાસથી પોતાના ભાષણમાં વર્ણન કર્યું છે. અને સાથે સાથે સોનગઢમાં રહેનારા મુમુક્ષુઓનું વર્ણન
પણ કર્યું છે. પૂ. સદ્ગુરુદેવશ્રીના સંબંધમાં અંતરથી જે પ્રશંસાપૂર્ણ ઉદ્ગારો કહ્યા છે તે વડે વિદ્વત્પરિષદના પ્રમુખશ્રીએ
સત્ધર્મના પ્રચારમાં અત્યંત વેગ આપ્યો છે. તેમના ભાષણનો ટૂંક ભાગ અહીં આપવામાં આવે છે–)
यहां पर परिषदका अधिवेशन करने से हम सबको महाराजश्री के पासमें अध्यात्मका बहुत लाभ
मिला है। अधिवेशन में उपस्थित सभी विद्वानों कह रहे हैं कि हमको महाराजश्री के आध्यात्मिक उपदेश से
बहुत लाभ हुआ है। हम सब के परिणाम में भेद हो गये हैं। परिषद् अपना अधिवेशन का कार्य तो किसी
भी स्थान पर कर सकती थी, किन्तु महाराजश्री का आध्यात्मिक उपदेश का लाभ लेने के मुख्य हेतु से इस
स्थान को पसंदगी दी गई।
१९९६ की साल में जुनागढ में जब महाराजश्री से मेरा एक घंटे तक परिचय हुआ तबसे ही मेरे
हृदय में ऐसी छाप पडी हुई थी कि महाराजश्री का उपदेश अवश्य सुनना चाहिए इसलिये हम सब विद्वान
भाइओं को एक साथ ऐसा लाभ मिले–यह हेतु से इस अवसर पर यहां आनेका प्रसंग मिला है। तीन दिन
महाराजश्री का आध्यात्मिक व्याख्यान सुनकर मुझे ऐसा आत्मवेदन हुआ है कि अभी मैनें आत्मा का कूछ
नहि किया, केवल शरीर का किया है। जब हम विद्यार्थीओं को शास्त्राभ्यास कराते थे तब प्रवचनसारादि में
चिदानंद शुद्ध आत्माकी जो अध्यात्म बात आती थी उसको तो छोड देते और उद्धर्वांश कल्पनादि बात हम
शीखाते थे। [आ बोलती वखते सभापतिजी घणा गळगळा थई गया हता।]
यह सोनगढ जैसा वातावरण अन्यत्र कहीं पर भी नही है। एक बाई पानी भरने के लिये जा रही
थी, उससे किसीने पूछा कि ‘मंडनमिश्र का घर कहां है?’ तब बाईने उत्तर दिया कि ‘जिस घरमें तोता
भी शास्त्रार्थ कर रहा हो कि–स्वतः प्रमाणः परतः प्रमाणः उस घर मंडनमिश्र का जानना’ उसी तरह यदि
कोई पूछे कि सोनगढ कहां है? तो हम भी उत्तर देते हैं कि–जिस स्थानमें घरघरमें भाई–बहिनों छोटे–बडे
सब के बिच दिनतरात अध्यात्म की चर्चा सुनाई पडती हो वही सोनगढ है। यहां के छोटे बच्चोंके पास भी
हमें अध्यात्म की चर्चा सुननेमें आती है। रास्ते में चलते चलते अजैन डाॉकटर भी हमारी साथ तत्त्वचर्चा
करने लगता हैं, इससे हमको ऐसा लगा कि जो शरीर का डाॉकटर था वे सोनगढ में आत्मा का भी
डाॉकटर बन गये। एक पोलीसपटल जो कि महाराज का उपदेश सुनने को आते हैं और जो मुस्लिम बंधु है
वे भी रास्ते में हमको पूछते थे कि आपको महाराज की वाणी कैसी लगती हैं। रात्रिको सोते समय पिछली
बारिमें से बहिनों में उपादान–निमित्त की चर्चा का आवाज सुननेमें आता था। यहां रहने वाले सब भाई–
बहिनों का आध्यात्मिक जीवन देखकर हमको अति आनंद होता है। यह सब प्रभाव महाराजश्री का उपदेश
का ही है और यहां के सब को एक दूसरे पर प्रेम है–छोटे को बडे पर, बडे को छोटे पर, यह देखकर भी
हम प्रसन्न हुए हैं।
जब हम यहां आ रहे थे तब तो ऐसा विचार था कि वहां के भाई–बहिनों कुछ हमारे शिक्षणका
अनुकरण करेगा, किन्तु उल्टा ऐसा हुआ कि हमारे ही यहां से शिक्षा लेने योग्य बना है। यहां महाराज की
पास में हम सब को नई द्रष्टि मिली है हमारी भावना यह है कि हम नित्य यहां पर ही ठहर जाय, और
महाराजश्री का उपदेश सुनकर अपना आत्मकल्याण करें। हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हम फिर
फिर इधर आयें।
आज दो हजार वर्ष के बाद भी मैं महाराजश्री को कुंदकुंद स्वामी के मूर्तिमंतरूप में देख रहा
हूं और मेरी पुनः पुनः यही भावना है कि महाराजजी को साक्षात् कुंदकुंदके ही रूप में देखूं।