Atmadharma magazine - Ank 042
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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चैत्रः २४७३ः १११ः
ज्ञान पामो, कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शननो परम महिमा जनसमाजमां विस्तारो अने नयाधिराज निश्चयनयनो
विजयडंको दिगंत सुधी गाजो.
छेवटे, आपने हृदयना भावथी सत्कारतो, आपनी सेवाबरदासमां जे कांई त्रुटियो होय ते माटे आप
उदारचित्त महानुभावो पासे क्षमा याचतो अने जैन दर्शनना प्रचारकार्यमां सफळता इच्छतो, हुं विरमुं छुं.
शुक्रवार ता. ७–३–४७ रामजी माणेकचंद दोशी
– श्री दि. जैन विद्वत् परिषदनो–महत्वपूर्ण ठराव
आत्मार्थी श्री कानजी महाराज द्वारा दि. जैनधर्मनुं जे संरक्षण अने संवर्द्धन थई रह्युं छे तेनुं विद्वत परिषद्
श्रद्धापूर्वक अभिनंदन करे छे; तथा पोताना सौराष्ट्रना साधर्मी बहेनो भाईओना सद्धर्म प्रेमथी प्रमोदित थती थकी
हृदयथी तेमनुं स्वागत करे छे. विद्वत् परिषद् तेने परम सौभाग्य अने गौरवनो विषय माने छे के–आज बे हजार
वर्ष बाद पण महाराजे श्री १००८ वीर प्रभुना शासनना मूर्तिमंत प्रतिनिधि भगवान कुंदकुंदनी वाणीने समजीने,
मात्र पोताने ज ओळख्या छे एम नहिं परंतु हजारो अने लाखो मनुष्योने एक जीव उद्धारना सत्यमार्ग पर
चालवानो उपाय दर्शावी दीधो छे. परिषदनो द्रढ विश्वास छे के महाराजनां प्रवचन, चिंतन तथा मनन द्वारा दि. जैन
धर्मना सिद्धांतोनुं जे स्पष्टीकरण तथा विवेचन थई रह्युं छे ते मात्र साधर्मीओनी द्रष्टिने अंतर्मुख करीने ज नहि
अटके परंतु ते सतत् ज्ञान आराधकोने अप्रमत्तताना साक्षात् परिणाम आचरण प्रत्ये पण प्रयत्नशील बनावशे,
तेमज सर्वे मनुष्योने अंतर तथा बाह्य पराधीनताथी छोडावनार रत्नत्रयनी प्राप्ति करावनारुं वातावरण सहज ज
उत्पन्न करशे. तेथी आ अवसर पर अभिनंदन अने स्वागतनी साथे साथे परिषद ए पण घोषित करे छे के, जे
तेओश्रीनुं कर्तव्य छे ते अमारुं ज छे तेथी आ प्रवृत्तिमां अमे तेमनी साथे छीए.
ः समर्थकःः प्रस्तावकः
पं. महेन्द्रकुमारजी जैन न्यायाचार्यप्रो. खुशाल जैन
पं. परमेष्ठीदासजी जैन न्यायतीर्थ
पं. राजेन्द्रकुमारजी जैन न्यायतीर्थकैलाशचंद्र
(प्रमुख, श्री दि. जैन विद्वत् परिषद)
ता. ८–३–४७
श्री दि. जैन विद्वत् परिषद् का महत्वपूर्ण प्रस्ताव
आत्मार्थी श्री कानजी महाराज द्वारा जो दि० जैनधर्म का संरक्षण और संवर्द्धन हो रहा है विद्वत्
परिषद उसका श्रद्धापूर्वक अभिनन्दन करती है। तथा अपने सुराष्ट्री साधर्मी बहिनों भाईयों के सद्धर्म प्रेम से
प्रमुदित होती हुई उनका हृदय से स्वागत करती है। वह इसे परम सौभाग्य और गौरव का विषय मानती
है कि आज दो हजार वर्ष बाद भी महाराजने श्री १००८ वीर प्रभु के शासन के मूर्तिमान प्रतिनिधि भगवान
कुन्दकुन्द की वाणी को समझ कर अपने को ही नहीं पहचाना है अपितु हजारों और लाखों मनुष्यों को एक
जीव उद्धार के सत्मार्ग पर चलने की सुविधाएं जुटा दी हैं। प्रिषद का द्रढ विश्वास है कि महाराज के
प्रवचन, चिन्तन तथा मनन द्वारा होने वाला दि० जैन धर्म की मान्यताओं का विश्लेषण तथा विवेचन न
केवल साधर्मियों की द्रष्टि को अन्तर्मुख करेगा अथवा सतत् ज्ञानाराधकों को अप्रमत्तता के साक्षात् परिणाम
आचरण के प्रति तथैव प्रयत्नशील बनायेगा, अपितु मनुष्य मात्र को अन्तर तथा बाह्य पराधीनता से छुडाने
वाले रत्नत्रय की प्राप्ति कराने वाले वातावरण को सहज की उत्पन्न कर देगा। अतएव इस अवसर पर
अभिनन्दन और स्वागत के साथ साथ परिषद यह भी घोषित करती है कि यतः आप का कर्तव्य हमारा है
अतः इस प्रवृत्ति में हम आप के साथ हैं।
ः समर्थकःः प्रस्तावकः
पं. महेन्द्रकुमारजी जैन न्यायाचार्यप्रो. खुशाल जैन
पं. परमेष्ठीदासजी जैन न्यायतीर्थ
पं. राजेन्द्रकुमारजी जैन न्यायतीर्थकैलासचंद्र
(अध्यक्ष, श्री दि. जैन विद्वत् परिषद)
ता. ८–३–४७