Atmadharma magazine - Ank 042
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः ११२ः आत्मधर्मः ४२
अध्यात्मनी जयोति – (गुजराती भाषांतर)
(अभिनंदनना ठरावना समर्थन वखते आपेला वकतव्यनी तेमणे लखी आपेली टूंक नोंध)
आत्मार्थी सत्पुरुष श्री कानजी महाराजना प्रवचनो सांभळीने अमारुं हृदय आश्चर्यचक्ति थई गयुं. अमने
अध्यात्मद्रष्टिनुं स्पष्ट भिंजायेलुं विवेचन सांभळवा मळ्‌युं. बधा सत्संगी भाईओना सत्संगनो लाभ थयो. अमे
अमारी प्रसन्नता कया शब्दोमां व्यक्त करीए? श्री कानजी महाराज जगतमां स्थायी शांतिनो मूळ मंत्र–स्वद्रष्टि–
स्वाधिकारनुं विविधरूप निरूपण करे छे. जगतमां अशांतिनुं मूळ कारण ए छे के प्रत्येक द्रव्य बीजा द्रव्य उपर
अधिकार जमाववा चाहे छे, तेने पोताने अनुकूळ परिणमन कराववा चाहे छे, द्रव्य पोताना ज गुण–पर्यायोनुं
स्वामी छे अने पोताना ज रूपमां परिणमन करे छे. पर द्रव्य उपर के तेना परिणमन उपर तेनो कोई अधिकार
नथी. परंतु मूढ प्राणी हंमेशा एम इच्छे छे के जगतना बधा पदार्थो मारी अनुकूळताए परिणमन करे अने पर
पदार्थोनुं परिणमन पोताने अनुकूळ कराववानी धूनमां अनेक प्रकारे हिंसा अने संघर्षनी उत्पत्ति करे छे. संक्षेपमां–
पर पदार्थोने पोताने अनुकूळ परिणमाववानी वृत्ति ते ज हिंसा छे अने स्वाधिकार–स्वगुणपर्यायाधिकार ते ज
अहिंसा छे.
शांतिना ए ज मूलमंत्रनुं सतत् व्याख्यान आ आध्यात्मिक भूमि पर थाय छे. भगवान कुंदकुंदना
वचनामृतने भव्यजनो अति मंदकषायपूर्वक सांभळे छे–ए विशेष संतोषनी वात छे. अमारा साधर्मी बंधु तरीके
अमे ते बधाने अभिनंदन आपीए छीए अने भगवान जिनेन्द्रदेव पासे प्रार्थना छे के श्री कानजी महाराज सो वर्ष
सुधी चिरजीवन प्राप्त करे अने आपणने बधाने लाभ पहोंचाडता रहे. अमे आपने फरथी अभिनंदन करीए छीए.
महेन्द्रकुमार जैन
* * * *
अष्टप्राभृत
प्रवचनोनो टूंकसार लेखांकः प
(९१ सुधीना फकरा अंक ४०मां आवी गया छे ते पछीथी अहीं आपवामां आवे छे.)
(९२) सम्यग्द्रष्टिओ शुभाशुभ लागणी रहित निराकूळ आत्मस्वभावने जाणे छे अने अनुभवे छे.
निराकूळ स्वभावथी बहार लक्ष जईने जे शुभ–अशुभ लागणी थाय तेने पोतानुं स्वरूप मानता नथी पण
दुःखदायक माने छे. अशुभ लागणीओ ते तो धगधगता डाम जेवी दुःखदायक छे, तेनाथी आत्मानो निराकूळ आनंद
लूंटाय छे; अने शुभलागणीथी पण आत्मानो निराकूळ आनंद लूंटाय छे, तेथी ते पण दुःखदायक छे. आ
सम्यग्द्रष्टिनुं अंतरपरिणमन छे ते बहारथी देखाय नहीं.
(९३) प्रश्नः–जो सम्यग्द्रष्टि शुभ–अशुभ बंनेने दुःखदायक ज माने छे, तो तेने ते केम थाय छे? कोणे तेने
एम करवानुं कह्युं हतुं? के शुं कर्मो जोरावरीथी करावे छे?
उत्तर–कोईना कहेवाथी ते भाव थता नथी, तेम कर्मोनी जोरावरीथी पण थता नथी; पण सम्यग्दर्शन वडे
तेमने आत्मस्वभावनुं भान थयुं होवा छतां पुरुषार्थनी मंदताने लीधे हजी वीतराग थया नथी तेथी राग रह्यो छे,
ते कारणे शुभ–अशुभवृत्तिओ आवी जाय छे, परंतु ज्ञानी तेने स्वपणे स्वीकारता नथी, तेथी तेमां सुखबुद्धि केम
होय? पुरुषार्थनी नबळाई अने राग द्वेष तेने पण आत्मामां स्वीकारता नथी, संयोग तो परद्रव्य ज छे, ए प्रमाणे
ज्ञानी तो पोताने एक ज्ञायक भाव ज माने छे. सम्यग्दर्शन थतां तुरत ज जीवने विषयादिनी आसक्ति छूटी ज जाय
एम नथी, केम के विषयनी आसक्ति टळवी ते तो चारित्रनुं कार्य छे, परंतु विषयादिनी रुचि, सुखबुद्धि तो अवश्य
टळी ज जाय. (रुचि ते श्रद्धानो दोष छे अने विषयनी आसक्ति ते चारित्रनो दोष छे. श्रद्धानो दोष टळतां
चारित्रनो दोष पण साथे टळी ज जाय– एवो नियम नथी. सम्यग्दर्शन थतां श्रद्धानो दोष तो टळे छे, तेथी
परद्रव्यमां सुखबुद्धि के रुचि होती नथी, छतां आसक्तिनो राग होय छे, ते चारित्रनी अस्थिरता छे.)