Atmadharma magazine - Ank 042
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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चैत्रः२४७३ः ११३ः
(९४) आ सम्यग्दर्शननी वात चाले छे. सम्यग्दर्शन ते स्वभावदशा छे, पूरा स्वभावने स्वीकार्या वगर
सम्यग्दर्शन थाय नहि. चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने आत्मभान होवा छतां विषयादिनी वृत्ति थाय पण तेने विकार
जाणीने छोडवा मागे छे अने तेनुं स्वामीत्त्व मानता नथी. जेम कोईने दस्त जवानुं थयुं होय, पण ते जग्या दूर होय
तेथी त्यां जतां सुधी केटलोक वखत दस्त पेटमां होय, छतां तेने ते दस्तनुं स्वामीपणुं नथी पण जल्दी छोडवा मागे
छे. तेम सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा जीव पण पुण्य–पाप भावोने विष्टारूप मानीने छोडवा मागे छे. ‘पुण्य–पाप मारुं
कर्तव्य छे, अथवा पुण्यथी मने लाभ छे’ एवी मान्यतारूप बंधकोष तो छूटी गया छे परंतु हजी स्थिरतानी कचाशने
लीधे पर्यायमां केटलोक वखत ते पुण्य–पाप रही जाय छे, तेने जल्दी छोडवानी भावना छे, ते हवे अल्पकाळमां ज
टळी जवाना छे, स्वभावद्रष्टिनुं एवुं जोर छे के ते ऊर्ध्वगतिए स्वभावमां परिणमीने केवळज्ञान ज प्रगट करे. जेने
स्वभावद्रष्टि थाय तेने स्वभावना जोरे प्रतीत थाय के समये समये मारी पर्यायमां शुद्धता वधती ज जाय छे, अने
विकार टळतो ज जाय छे; ए कार्य स्वभावद्रष्टिनुं छे.
(९प) प्रश्नः–तो सम्यग्द्रष्टिने ज्यां सुधी केवळज्ञान न थाय अने अस्थिरता रहे त्यां सुधी विकार करवानी
छूट छे ने?
उत्तरः–अरे भाई, तने पोताने विकारनी रुचि छे तेथी तने विकार ज देखाय छे अने सम्यग्दर्शननुं निर्मळ
परिणमन ओळखातुं नथी. तेथी ज तने आवो ऊंधो प्रश्न ऊठयो छे. सम्यग्द्रष्टिना अंतरमां विकारनी जरा पण रुचि
नथी, अने तेने विकार करवानी भावना नथी. खरेखर ते विकार करता नथी पण सम्यग्दर्शनना जोरे समये समये
विकारने टाळे ज छे. अनंत गुणोथी परिपूर्ण स्वभाव छे अने तेना सर्व प्रयोजन स्वयं पोताथी ज सिद्ध छे, एवा
पोताना स्वभावनी रुचि अने विश्वास थया पछी ज्ञानीने अन्य भावोनी रुचि केम होय? स्वभावमां कांई
अधूराश नथी, दरेक समये परिपूर्ण स्वभाव छे, ते स्वभावनी रुचि पासे एक विकल्प मात्रनी रुचि सम्यग्द्रष्टिने
स्वप्ने पण होती नथी.
(९६) प्रश्नः–आटलुं बधुं समजवानुं शुं काम छे? छेवटे तो आपणे विकार टाळवो छे ने? तो पछी राग
घटाडवा मांडो, तेथी धीमे धीमे विकार टळी जशे.
उत्तरः–विकाररहित शुद्ध आत्मानुं स्वरूप शुं छे ते साचुं समज्या वगर कोई जीवने वहेलो के मोडो
क्यारेय विकार टळे नहि. ‘पुण्यथी लाभ थाय अने पुण्य–पाप ज मारुं कर्तव्य छे’ एम अज्ञानी माने छे, तो जेने
पोतानुं कर्तव्य माने तेने छोडे शी रीते? माटे रागरहित स्वरूपनी साची समजण वगर खरेखर विकार छूटे नहि.
जेणे पुण्यादि एक पण विकारने पोतानो मान्यो तेने निरंतर विकारनी ज उत्पत्ति छे. सम्यग्द्रष्टि विकारना एक
अंशने पण आत्मानो मानता नथी पण विकाररहित ज्ञानस्वभाव छे तेने ज पोतानो माने छे, तेथी तेमने
ज्ञानभावनी ज उत्पत्ति छे. चारित्रनी निर्बळताने लीधे जे अल्प रागादि थाय छे तेनो अहीं श्रद्धाना विषयमां
स्वीकार नथी. सम्यग्दर्शनरूपी निर्मळ जळप्रवाहथी विकार अने कर्मरूपी मेलने क्षणे क्षणे धोई नांखे छे.
(९७) जेम घरमां सर्प होय तेनी खबर पडे अने ते सर्पने पकडी ल्ये, परंतु सर्प वगेरेने छोडवानी जग्या
घरथी दूर होय तेथी तेने मूकवा जतां वार लागे; अने तेथी थोडो वखत सर्प घरमां रहे परंतु पकडायेलो सर्प हवे
घरमां रहेवानो नथी अने घरना माणसो पण तेने जल्दी बहार काढवा इच्छे छे. तेम ज्ञानीओए पोताना शुद्ध
स्वभावनी ओळखाणना जोरथी सर्व पुण्य–पापने विकार तरीके जाणी लीधा छे. पहेलां अज्ञान अंधकारने लीधे
अविकार स्वभाव अने विकारभाव वच्चेना भेदनी खबर न हती पण ज्ञानप्रकाश वडे ते भेद जाण्या पछी ज्ञानीओ
विकारने जल्दी छोडवानी भावना करे छे. पुरुषार्थनी अस्थिरताने लीधे सर्व पुण्य–पाप दूर करतां थोडो काळ लागे
छे; परंतु ते भावोने विकार तरीके जाणी लीधा होवाथी हवे ते आत्मामां लांबो काळ टकी शकशे नहि. सम्यग्दर्शन वडे
पूर्णस्वभावनी भावना अने एकाग्रताना जोरे अल्पकाळमां मुनिदशा अने केवळज्ञान प्रगट करीने सर्व विकारनो
क्षय करशे. आ सम्यग्दर्शननुं माहात्म्य छे.
(९८) शास्त्रोमां कोई वार कहे के भोग भोगववानी वखते पण सम्यग्द्रष्टिने निर्जरा थाय छे त्यां
सम्यग्दर्शननुं माहात्म्य बताव्युं छे सम्यग्द्रष्टिने विशेष चारित्रदशा न होवा छतां सम्यक्श्रद्धा अने सम्यग्ज्ञाननुं
परिणमन थया करे छे तेथी भोगनी लागणी वखते पण तेनाथी भिन्न चैतन्य स्वभावना श्रद्धा–ज्ञानपणे जे
परिणमन छे ते खरेखर निर्जरानुं कारण छे; पण जे विकारनी लागणी छे ते