Atmadharma magazine - Ank 042
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः ११४ः आत्मधर्मः ४२
दोष छे. भोग भोगववाने मुक्ति थशे–एम सम्यग्द्रष्टि कदापि मानता नथी, पण तेओ जाणे छे के ज्यारे भोगनी
लागणीओने तोडीने, सर्व संग परित्यागी थई स्वरूपनी साधक निर्ग्रंथ मुनिदशा अंगीकार करी स्वरूप स्थिरता
करीश त्यारे ज मुक्ति थशे. सम्यग्द्रष्टिने कषायमां स्वामीत्व रह्युं नथी, तेओए पोताना अकषाय ज्ञानस्वभावने
जाण्यो छे अने अकषाय दशानी भावना करे छे के–अहो! क्यां मारुं सिद्धपद! मारुं परम शांत, परम वीतरागस्वरूप
तेना वेदननो अनाकुळ परमानंद क्यां अने आ कषायनी आकुळतानुं वेदन क्यां?
(९९) आ दशा तो देव–गुरु–शास्त्रना विवेक पछी आत्मस्वभावना विवेकनी छे. जेने देव–गुरु–शास्त्रनो
ज विवेक न होय तेने तो आवी सम्यक्त्व दशा होय ज नहि, अने साचा देव–गुरु–शास्त्रनो विवेक कर्या पछी पण
जो त्यां ज आश्रय मानीने अटकी जाय अने पोताना स्वभावना आश्रय तरफ न ढळे तो तेने पण सम्यकत्व दशा
प्रगटे नहि. आ सम्यग्दर्शन पोते ज धर्म छे. जे स्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन प्रगटयुं ते ज स्वभावना विशेष
आश्रये केवळज्ञान अने सिद्ध दशा प्रगटे छे, स्वभावना आश्रय सिवाय अन्य कोई उपाय नथी.
(१००) घणा जीवो प्रथम स्वभावनी समजणनो–सम्यग्दर्शननो–उपाय तो करता नथी अने पोताने व्रत–
तप करनारा माने छे. हवे व्रत–तप तो सम्यग्दर्शन पछी चारित्रदशामां होय. जेणे सम्यग्दर्शन पहेलां व्रत–तप
मान्यां तेणे सम्यग्दर्शन धर्म कठण अने चारित्र धर्म तेना करतां सहेलो–एम मान्युं. तेणे स्वभाव दशानी ना पाडी
अने विकारभावनी हा पाडी–एटले तेने स्वभावनी अरुचि अने विकारनी रुचि छे, ते मिथ्याद्रष्टि छे. व्रतादि पहेलां
सम्यग्दर्शन होवुं जोईए. ए सम्यग्दर्शनथी ज धर्मनी शरूआत छे, तेना वगर धर्म होतो ज नथी, एटले के
सम्यग्दर्शन वगर जे करे ते बधुं अधर्म छे अने संसारनुं कारण छे.
(१०१) घणा जीवो कषाय घटाडवानी वातो करे छे, पण कषाय वगरनो आत्मस्वभाव छे तेने मान्या
वगर कषाय खरेखर घटे ज नहि. गोमट्टसारादि सिद्धांत शास्त्रोमां तो मिथ्याद्रष्टिने (पहेला, बीजा अने त्रीजा
गुणस्थाने) अशुभभाव ज गणवामां आव्या छे. मिथ्याद्रष्टिजीव पूजा, भक्ति, दान वगेरेना भाव करे, परंतु ‘आ
शुभरागथी मने लाभ छे’ एवा तेना मिथ्या अभिप्रायमां अनंतानुबंधी कषायने ते पोषी रह्यो छे, तो तेने खरेखर
मंद कषाय पण केम कहेवो? तेने खरेखर तो सदा तीव्र कषाय ज छे. वास्तविकपणे मंद कषाय पण त्यारे ज थाय के
ज्यारे कषायने ज पोतानुं स्वरूप न माने अने पोताना कषायरहित ज्ञानस्वभावने ओळखे. आत्मानी प्रतीत थया
पछी सम्यग्द्रष्टिने तीव्र कलुषता थती नथी. सम्यग्द्रष्टिने लडाईनो कषाय होवा छतां पण ते तीव्र कषाय नथी; केमके
आ कषाय मारुं स्वरूप नथी अने ते मारुं कर्तव्य नथी एवुं भिन्न स्वभावनुं भान होवाथी स्वभावनी हद चूकीने
कषाय थतो नथी एटले ते कषाय मर्यादित छे. अज्ञानी जीव पूंजणीथी पूंजतो होय अने दयाभाव करतो होय तो
पण तेने ते राग–कषाय साथे एकत्वबुद्धि होवाथी स्वभावनी हद चूकीने ते कषाय छे अने तेथी तीव्र कषाय छे. माटे
कषाय टाळवानो साचो उपाय पण सम्यग्दर्शन ज छे.
(१०२) सम्यग्द्रष्टिने पूर्वना अघातिकर्मना कारणे लडाई वगेरेनो संयोग होय अने वर्तमान पुरुषार्थना
दोषथी द्वेषभाव पण थाय, छतां तेने व्यक्ति प्रत्ये विरोध नथी. तेनी श्रद्धाना अभिप्रायमां तो ते द्वेषनी लागणीने
के जडनी क्रियाने पोतानुं कर्तव्य मानता नथी, अने एम समजे छे के बधा आत्मा मारा समान ज चिद्स्वरूप छे,
मारो कोई शत्रु के मित्र नथी. आवा सम्यक् अभिप्रायना जोरे तेमने जुनां कर्मो अने विकार पण खरी ज जाय छे
अने शुद्धता वधती जाय छे; ए महिमा सम्यग्दर्शननो ज छे. जे अल्प बंध थाय छे ते अस्थिरताना कारणे थाय छे,
पण तेमां सम्यग्दर्शननो दोष नथी.
(१०३) ए ध्यान राखवुं के सम्यग्द्रष्टिने पण जे रागद्वेषरूप भाव छे ते चारित्रनो दोष होवाथी चारित्र
अपेक्षाए तो बंधनुं ज कारण छे. परंतु त्यां श्रद्धानो दोष नहि होवाथी सम्यग्द्रष्टिने श्रद्धा अपेक्षाए तो निर्जरा ज
छे. अहीं ‘सम्यग्द्रष्टिने कषाय थाय तो वांधो नहि’ एम बताववुं नथी परंतु कषाय वखते पण सम्यक्त्वनुं
परिणमन केवुं शुद्ध होय छे ते बतावीने सम्यग्दर्शनना कार्यनो महिमा जणाववो छे.
(१०४) सम्यग्द्रष्टिने अनंतानुबंधी कषाय रहित उज्जवल परिणाम होय छे. सामे गमे तेवो विरोधी
होवा छतां हुं मारा परिणाम एक क्षणथी पलटावी शकुं छुं, विरोधीना कारणे मने अशुभपरिणाम थता नथी–एम