Atmadharma magazine - Ank 042
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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चैत्रः२४७३ः ११पः
सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना परिणामने स्वाधीन मानता होवाथी, सामो विरोधीजीव मारी नाखवा जेवो छे एवा तीव्र
हिंसक भाव तेमने कदी थता नथी अर्थात् सम्यग्द्रष्टिने संकल्पी हिंसा कदी होती नथी. कोई एकेन्द्रिय जीव पण
मारी नाखवा जेवो छे एवो हिंसानो संकल्प (–अभिप्राय) सम्यग्द्रष्टिने न होय. सम्यग्द्रष्टिने कदाचित् विरोधिनी,
उद्योगिनी के आरंभी हिंसाना परिणाम होय, परंतु ते पण करवानो अभिप्राय तो तेमने होतो नथी, अने हिंसाना
जे परिणाम थाय तेने तेओ पाप समजे छे. ‘चोथा गुणस्थाने तो विरोधिनी वगेरे हिंसानो सद्भाव कह्यो छे माटे
आपणने जे जीवो प्रतिकूळ होय तेने मारवा ते आपणी फरज छे अने तेमां पाप नथी.”–एम जे माने ते तो
मिथ्यात्व सहितना तीव्र पापपरिणामवाळो छे अथवा तो ते हिंसाधर्मी (हिंसामां धर्म माननारो) छे.
वळी ‘अमुक जीव रोगादि पीडाथी अत्यंत दुःखी थई रह्यो छे माटे तेने मारी नाखो, तेथी ते दुःखमुक्त थई
जाय’–एवा अभिप्रायथी कोई जीवने मारवानो भाव ते पण महा संकल्पी हिंसा छे; अहींथी मरी जाय एटले जीव
दुःखमुक्त थई जाय छे–एम माने तेणे पुनर्जन्म मान्यो नथी एटले ते नास्तिक छे. मांस वगेरेनो आहार के
पंचेन्द्रिय जीवोनी हिंसाना परिणाम सम्यग्द्रष्टिने तो न होय, परंतु आर्य माणसने पण न होय.
(१०प) जो आ मनुष्य जीवनमां सत्देव–गुरु–शास्त्रनो अने आत्मस्वभावनो निर्णय जीव न करे तो
अनंत संसारमां कोई आधारभूत नथी. भगवानने ‘तरणतारणहार’ कहेवाय, पण खरेखर भगवान कोईने
तारता नथी. भगवान कोईना थया नथी, भगवाने अन्यनुं कांई कर्युं नथी, पण जे जीव पोते स्वभावने समजीने
तरवानो उपाय करे छे ते विनयथी भगवानमां उपचार करीने तेमने ‘तरणतारणहार’ कहे छे. जेम खाली बारदान
होय, तेमां जो साकर भरो तो तेने ‘साकरनो कोथळो’ कहेवाय अने जो कडवुं करियातुं भरो तो ‘कडवा करियातानो
कोथळो’ कहेवाय; जेवो माल भरे तेवो कोथळो कहेवाय, पण खरेखर तो कोथळो साकरनो पण नथी अने कडवा
करियातानो पण नथी, कोथळो तो शणनो छे; तेम देव–गुरु–शास्त्र तो बारदान समान छे. जेवो माल पोते भरे
तेवो तेमनामां आरोप कराय. जो पोते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट करे तो तेमने ‘तरणतारणहार’ इत्यादि
उपचारथी कहेवाय अने जो राग करे तो रागना निमित्त कहेवाय छे.
(१०६) स्वभावनी प्रतीतिने लीधे सम्यग्द्रष्टिने उज्जवळ–परिणामरूपी पाणीनो प्रवाह चाले छे. तेथी
उदयगत कर्मने भोगववा छतां तेओ कर्मथी लेपाता नथी. ‘उदयगत कर्मने भोगवे छे’ ए भाषा मात्र अज्ञानीने
समजाववा माटे छे; खरेखर ज्ञानीओ परने भोगववानुं मानता ज नथी, अने राग थाय तेनी पण तेमने रुचि
नथी, एटले निश्चयथी तो तेओ रागना भोक्ता पण नथी. सम्यग्द्रष्टि जीवो रागादि विकारने विष्टा समान जाणीने
छोडवा मागे छे. जेम कोईने पेटमां आंतरनी गति उलटी थई जाय अने मोढेथी उलटी द्वारा विष्टा नीकळे तो कोई
माणस तेनी रुचि करतो नथी तेम ज तेना स्वादनो भोक्ता पोताने मानतो नथी पण ते झट काढी नांखवा मागे छे.
तेम सम्यग्द्रष्टिने पुरुषार्थनी मंदताथी जे रागादि विकार थाय छे तेने ते विष्टा समान जाणे छे, चारित्रनुं ऊलटुं
परिणमन थईने तेनी उत्पत्ति थई छे, ज्ञानी ते विकारना स्वादने पोतानो मानतो नथी, तेनी रुचि नथी; अनाकुळ
स्वभावना स्वाद पासे ते विकारनो स्वाद विष्टा समान जाणे छे. चारित्रस्वभावनी सवळी गतिथी ते भाव उत्पन्न
थयो नथी पण ऊंधी गतिए तेनी उत्पत्ति थई छे.
(१०७) आत्मानी श्रद्धा थया पछी विकार थाय तो वांधो नहि–एम जो कोई माने तो तेने विकारनी होंश
छे पण स्वभावनी भावना नथी, ते मिथ्याद्रष्टि छे. सम्यग्द्रष्टिने तो विकार थाय तेनो खेद होय छे अने ते टाळवानी
भावना होय छे. ज्ञानीओने कोई पण प्रकारना राग प्रत्ये रुचि उपजती नथी माटे तेमनो राग निर्जरा खाते ज छे
अने तेमने कर्म लागतुं नथी.
(१०८) छठ्ठी गाथामां कह्युं हतुं के ‘जे जीव सम्यग्दर्शन–ज्ञान वगेरेथी गुणोथी वर्द्धमान छे अने
कलिकलुषपापथी रहित छे ते शीघ्र केवळज्ञानी थाय छे.’ कलिकलुषपाप एटले आ पंचमकाळमां कुदेव–कुगुरु–
कुशास्त्रनी मान्यतारूप पाप; तेनुं वर्णन पहेलां आवी गयुं छे. आ काळमां कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रनी मान्यता बहु वधी
पडी छे, तेने अहीं ‘कलिकलुषपाप’ कह्युं छे.
(१०९) जेने परिग्रहना पोटलानो पार नथी एवा जीवोने मुनि माने, अने तेने मुनि मानीने नमस्कार
करे तो तेमां जीवने महा मिथ्यात्वपापनुं पोषण छे;