Atmadharma magazine - Ank 042
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः ११६ः आत्मधर्मः ४२
तेवा जीवने कलियुगना कलुषपापनी वासना छूटी नथी. मुनिपद तो निष्परिग्रह–निर्ग्रंथ छे. साचुं मुनिपद पोते
प्रगट न करी शके तो तेथी कांई सम्यग्दर्शनमां दोष नथी, परंतु जो मुनिपणानुं स्वरूप ज अन्यथा माने तो ते
सम्यग्दर्शन–भ्रष्ट छे.
(११०) वाडा अने कुपंथमां जीवो गळा सुधी खूंची गया छे. कुगुरुओना सेवनने छोडया वगर तेमांथी
जीव छूटी शकतो नथी अने आत्मकल्याणना साचा मार्गमां लागी शकतो नथी. श्रीमद् राजचंद्रजीए तो स्पष्ट कह्युं छे
के–“कुगुरुओए लोकने अवळो मार्ग बतावी भूलाव्या छे; मनुष्यपणुं लूंटी लीधुं छे एटले जीव मार्गमां केम
आवे?” जगतना जीवोने मिथ्यात्वपापथी छोडाववा माटे भगवान श्रीकुंदकुंदाचार्यदेवे करुणा करीने आ
दर्शनपाहुडमां बेधडकपणे सत्यने जाहेर कर्युं छे, माटे सत्–असत्नो निर्णय करीने सत्यनो हकार लावो.
(१११) आजे (–वैशाख वद ६) समवसरणनी प्रतिष्ठानो मांगलिक दिवस छे; समवसरणमां श्री जिनेन्द्र–
प्रभुनो दिव्यध्वनि छूटे छे तेमां जे वस्तुस्वरूप जाहेर थाय छे, ते ज वस्तुस्वरूप श्रीकुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे; ए सिवाय
सत्यमार्गनुं बीजुं स्वरूप कदापि छे ज नहि.
(११२) गरीब माणस होय अने पोताना सगांने त्यां छाश लेवा जाय, तो त्यां दोणकी संताडीने ऊभो न
रहे, छाश लेवा जाय अने दोणी संताडे ते चाले नहि, तेम जे जीवोए आत्मकल्याण प्राप्त करवुं होय तेओए
देवगुरु–शास्त्रनी मान्यता संताडाय नहि अर्थात् तेमां गोटा के अनिर्णय न चाले, पण सत्देव–गुरु–शास्त्रनो
निर्णय करीने असत् देव–गुरु–शास्त्रने प्रगटपणे छोडी देवा जोईए.
(११३) प्रश्नः–धर्मना नामे कुदेव–कुगुरुने न माने परंतु लौकिक खातर माने तो कोई दोष छे?
उत्तरः–जो कुदेव–कुगुरुने धर्मना नामे न माने तो पछी लौकिक शुं प्रयोजन छे? शुं एनी पासेथी पैसा के
पुत्रादिनी आशाथी तेने मानो छो?–तो ए पण गृहीत मिथ्यात्व ज छे. लौकिक खातर राजा वगेरेने मानवानुं बने
तो तेथी मिथ्यात्व दोष नथी. पण निर्ग्रंथ मुनि सिवाय बीजानो साचा साधु तरीके आदर थई शके नहि. जो परिग्रह
सहितने मुनि माने तो मिथ्यात्व दोष छे. कोई पण हेतुथी कुदेव–कुगुरुने माने तो तेमां मिथ्यात्व ज छे. सत्धर्मना
मार्गमां सम्यग्द्रष्टिओ सिवाय अन्य कोईने पण वंदन थई शके नहि. आमां कोई व्यक्ति प्रत्ये विरोध नथी, सामो
जीव अज्ञानी होय तो तेना भावनुं नुकशान तेने छे, एना भाव साथे बीजा जीवने संबंध नथी. आ तो सत्यनो
पक्ष छे. पोताना ज्ञानमां सत्यनो निर्णय अवश्य करवो जोईए.
(११४) कोईने व्यापार वगेरे प्रसंगोमां मांसाहारी माणस साथे मित्रता थई होय अने कोई प्रसंगे
मुसलमान तेने मांसनी कढी खावानो आग्रह करे; तो शुं आर्यमाणस, संबंध जाळववा खातर पण मांस खाशे? त्यां
तो पोतानी योग्यतानो विचार करीने चोकखी ना पाडे छे, पण संबंध राखवा माटे य थोडुं मांस खातो नथी. त्यां
समजे छे के मांसाहारी मनुष्य साथे खावा–पीवानो संबंध मारे न होय. तेम जे जीवने धर्म करवो छे तेणे
मिथ्यात्वनी पुष्टि करनारा तत्त्वोने ओळखीने तेनी साथेनो संबंध छोडी देवो जोईए. मिथ्यात्वनुं पाप मांसभक्षण
समान ज छे.
वळी कोई मांसाहारी राजा साथे संबंध थयो होय अने कोई प्रसंगे राजा मांससहित आहार माटेनुं
आमंत्रण करे; तो तेवा प्रसंगे आर्य माणस रूा. प०००) दंड भरवा पडे तो भरे परंतु मांस न खाय. रूपिया जाय के
प्राण जाय आर्य माणसने मांसनो आदर करवानी वृत्ति ज थाय नहि. तेम सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा जीवो गमे तेम थाय
तो पण आत्मानी श्रद्धारहित जीवोने नमस्कार करे नहि.
(११प) भाई, पहेलां आत्मानी ओळखाण करो. आत्मस्वभावनी ओळखाण थतां, सत् निमित्तो केवां
होय ते पण जणाया वगर रहेशे नहि. आ तो निस्पृह जैन दर्शन छे, तेनो कोई संबंधी नथी अने तेनो कोई दुश्मन
नथी. पोताना ज्ञानमां सत्यभाव ते ज मित्र छे अने ज्ञानमां मिथ्यात्व ते ज शत्रु छे. एक आत्मानी निंदा करवा
कोई पर आत्मा समर्थ नथी. कोण कोनी निंदा करे! बधायना भाव पोतपोतानी पर्यायमां ज कार्य करे छे. जगतमां
कोई कोईनो वेरी नथी–विरोधी नथी, मित्र नथी–संबंधी नथी. पण पोताना आत्मा माटे ज्ञानने सम्यक् करवा
माटेनी आ वात छे, परने माटे वात नथी, सम्यग्द्रष्टिओ स्वप्ने पण परने वेरी के मित्र मानता नथी. परंतु तेथी
करीने एम न सम–