Atmadharma magazine - Ank 042
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १०४ः आत्मधर्मः ४२
आचार्य वन–जंगलमां वसनारा निर्ग्रंथ संत मुनि हता, तेओने ब्रह्मचर्यनो अद्भुत प्रेम हतो. आ पद्मनंदी
पंचविंशतिमां पचीस अधिकार पूरा कर्या पछी छेवटमां एक खास ‘ब्रह्मचर्य–अष्टक’ नामनो अधिकार वर्णव्यो छे.
जेओ अप्रमत्त अने प्रमत्त भूमिकानी सहज भूमिकामां झुली रह्या छे, जेओने केवळज्ञान लेवाना कोड उठया छे, पण
एक अल्प रागनो विकल्प बाकी रह्यो छे एवा वीतरागी संत आ स्तुति करे छे. आ स्तुतिमां कुल ६१ गाथा छे,
तेमांथी प८ गाथा पूरी थई.
(१०२) हवे प९ मी गाथामां आचार्यदेव कहे छे के–
हे त्रिभुवन गुरु, जिनेन्द्र! आपना अनंत गुणोना समूहरूपी आकाशमां गमन करवावाळी आ
शुभविकल्परूपी पंखीणि गमे तेटले दूर जाय तोपण ते आपना अनंत गुणोना पारने पामवा समर्थ नथी. आत्माना
स्वभावनो पार तो स्वभाव भावथी ज पमाय छे पण विकल्पो वडे स्वभावनो पार पामी शकातो नथी. हे नाथ!
अमे तारा लक्षे गमे तेटली स्तुति करीए, पण तेमां तो राग आवे छे, ते रागवडे अमे अमारा स्वभावनी पूर्णता
पामवाना नथी, पण ज्यारे राग तोडीने स्वरूपमां ठरशुं त्यारे स्वभावनी पूर्णता थईने केवळज्ञान प्रगट थशे अने
ते केवळज्ञान वडे ज आपना अनंत गुणोना पारने पमाशे.
(१०३) हे प्रभो! अमे रागी के अपूर्ण जीवोने देव तरीके स्वीकार्या नथी पण परिपूर्ण वीतराग अने
संपूर्ण ज्ञानी एवा आपने देव तरीके स्वीकार्या छे. हुं तमारो नंदन, तमारो दास छुं, पतिना ओढणां ओढे, पतिनुं
अन्न खाय, पण पतिनी आज्ञा माने नहि–ए ते कांई पत्नी कहेवाय? तेवुं अहीं चाले तेम नथी. अहीं तो जे पोते
भगवाननो भक्त थयो–ते पोते भगवान थाय एवो मार्ग छे. पोताने वीतरागनो भक्त कहेवरावे अने रागमां
धर्म माने–ए ते कांई वीतरागने मान्या कहेवाय? ‘हे वीतराग! जेवा आप छो तेवो ज हुं मारा स्वभावे छुं राग
थाय तेने हुं मारा स्वभावमां स्वीकारतो नथी’–आम जे माने ते वीतरागनो भक्त छे. अने वीतरागनी रुचि–
बहुमान वडे रागनो नाश करीने अल्पकाळे पोते वीतराग थाय छे. हे नाथ! आपने पूर्ण स्वभावदशा प्रगट छे,
तेनी ओळखाण अने बहुमान वडे हवे हुं पण कुदेवादिनी मान्यता छोडीने अने रागादिमां धर्मनी मान्यता छोडीने
(–अर्थात् गृहीत अने अगृहीत मिथ्यात्वने छोडीने) पूर्ण आत्म स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान अने स्थिरताना बळथी
आप समान थवानो छुं–आवी निःशंकता भगवानना भक्तने होय छे; ते ज जैन छे.
(१०४) श्री आचार्य महाराज कहे छे के–हे नाथ, हुं आत्मस्वभावना गाणां गावा तैयार थयो छुं, पण
विकल्प वडे आत्मस्वभावनी स्तुति पूरी नहि थाय, पंखी ऊडी ऊडीने गमे तेटलुं दूर जाय पण आकाश तो अनंत
छे, तेनो पार पामे तेम नथी, तेम सत्देव–गुरु शास्त्रोए जेवो परिपूर्ण आत्मस्वभाव दर्शाव्यो तेवो ज हुं छुं,
आत्मस्वभाव अनंत गुणोथी परिपूर्ण छे, तेनी स्तुति आ विकल्पवडे पूरी थशे नहि, पण ज्यारे आ विकल्प तोडीने
स्वभावमां ठरीश त्यारे स्तुति पूरी थशे अने केवळज्ञान प्रगट थशे. माटे आ स्तुतिना विकल्पना पण अमे कर्ता
नथी. अज्ञानी जीव ज्यां त्यां विकारनो कर्ता थाय छे पण ज्ञानीनी द्रष्टि तो बधेथी ऊठीने एक स्वभावमां ज छे,
तेथी ज्ञानीओ भक्तिनी शुभलागणीना कर्ता थवा मागता नथी. तो हवे निराधार थयेली एवी ते विकारी लागणी
क्यां सुधी टकशे? ज्ञानीओ अल्पकाळे स्वभावस्थिरतानी श्रेणीवडे ते लागणी तोडीने स्वभावनो पार पामी जाय छे.
ते लागणी वडे स्वभाव पमाय तेम नथी.
(१०प) ज्ञानीओ भगवाननी भक्ति करे छे के–हे जिनेश! अमारी साधक दशा होवाथी जो के आ
भक्तिनो विकल्प ऊठे छे. परंतु अमारी रुचिमां शुद्ध ज्ञायक आत्मस्वभाव सिवाय अन्य कोईने स्थान नथी. पूर्ण
शुद्धआत्मानी द्रढ रुचिमां जे भक्तिनो विकल्प ऊठयो छे ते केटलीक वार टकवानो छे? पंखिणी गमे तेटली ऊंचे जाय
पण आकाशनो अंत पामवानी नथी, छेवटे तो थाकीने नीचे ज आववानी छे, तेम गमे तेवा शुभ विकल्प करे पण
ते विकल्पथी स्वभावनी पूर्णता थवानी नथी, अंते तो विकल्प तोडीने स्वरूपमां समाई जवानुं छे, त्यारे ज पूर्णता
थशे. विकल्परूपी पंखिणी आत्मामां समावा लायक नथी. पोताना आत्मामां वीतराग सर्वज्ञदेवने ओळखीने अने
आत्मस्वभावनुं भान प्रगट करीने साधकदशा प्रगट कर्या पछी पूर्णतानी भावना करतां वच्चे भक्तिनी वृत्ति ऊठे छे
तेने पण ज्ञानी छोडवा मागे छे अने स्वभावना पुरुषार्थवडे वृत्तिने तोडीने स्वरूपमां समावा मागे छे.
अनंतगुणस्वरूप आत्मस्वभाव छे तेनो पार विकल्पथी केम पामवो? ज्ञानस्वभाव वडे ज तेनो ख्याल आवे छे.