सामर्थ्यने धारण करनार ज्ञानस्वभावने विकल्पवडे अनुभवी शकातो नथी.
राग ज छे तोपछी कुदेवादिने माने तेनी तो वात ज शुं? जेने यथार्थ गुणोवडे जिनदेवनुं साचपणुं भास्युं नथी ते ज
कुदेवने माने छे. अत्यारे तो लोको जैन नाम धरावीने पण घरमां लोकपाल, पीर, क्षेत्रपाल, शीतळा, गोत्रीज वगेरे
अनेक प्रकारे कुदेवने माने छे ते महा अज्ञान छे. ज्यांसुधी कुदेवादिने साक्षात् आत्मानो घात करनार न माने
त्यांसुधी जीवने ज्ञाननी प्राप्ति थवानी नथी.
मांसवाळी कढी चाखो.’ तो राजाने सारुं लगाडवा खातर पण शुं आर्य माणस तेम करशे? नुकशान थाय तो भले
थाय परंतु व्यवहारमां सारुं लगाडवा माटे पण आर्य माणस ते मांस सामुं जुए नहि. पांच हजार रूपिया आपवा
पडे तो ते आपे परंतु मांस तो न ज खाय. तेम जिज्ञासु जीव लोक व्यवहारमां के घरमां सारुं लगाडवा माटे
कुदेवादिने कदी माने नहि. व्यवहारे घरमां पण कोई प्रकारना कुदेवने माने नहि. कोई प्रकारे कुदेवने मानवा ते घोर
पाप छे. जो के परद्रव्य लाभ–नुकशान करतुं नथी, परंतु पोतानो ऊंधो अभिप्राय ज महा नुकशाननुं कारण छे.
गुरु–शास्त्र कोण छे ते परीक्षा करीने नक्की करवुं जोईए. देव–गुरु–शास्त्रने ओळख्या पछी पण जो पोते स्वाश्रये
पोताना स्वभावनो अभ्यास, परिचय अने अनुभव प्रगट न करे, पण देव–गुरु–शास्त्रना ज अवलंबनमां अटकी
रहे तो ते मुक्तिना मार्गे वळ्यो नथी पण संसारमार्गे ज छे.
अनादर करतां कहे छे के हे नाथ! आत्मस्वभाव विकल्पगम्य नथी पण ज्ञानगम्य छे. ज्यारे विकल्प तोडीने
स्वानुभवमां लीन थशुं त्यारे रागनो अभाव थतां स्तुति पूरी थशे अने स्तुतिना फळरूपे परम वीतराग
केवळज्ञानदशा प्रगट थशे. –प९–
स्तोत्र रचवानुं जे साहस कर्युं छे ते माटे मने क्षमा करजो.
केवळज्ञान अनंत पूरुं छे अने हुं तो मतिश्रुत ज्ञानवाळो छुं, मारुं ज्ञान अल्प छे, आ अल्पज्ञानना लक्षे पूर्णता
प्रगटवानी नथी, पण विकल्प अने अपूर्णतानुं लक्ष छोडीने ज्यारे पूर्ण स्वभावना अनुभवमां एकाग्र थशुं त्यारे ते
पूर्णस्वभावना अवलंबने ज पूर्णता प्रगट थशे. आ रीते संत–मुनि पोतानी निर्मानता व्यक्त करे छे अने विकल्प
तोडीने पूर्णता करवानी भावना करे छे.
ज्ञानमूर्ति स्वरूपमां ठरी जा.