Atmadharma magazine - Ank 042
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 6 of 21

background image
चैत्रः २४७३ः १०पः
(१०६) रागमिश्रित होवा छतां जे ज्ञान एक समयमां अनंतने ख्यालमां ल्ये छे ते ज्ञान जो रागने तोडी
नाखीने स्वभावना ज अवलंबने जाणे तो अनंत लोकालोकने एक साथे प्रत्यक्ष जाणे एवी ताकातवाळुं छे. आवा
सामर्थ्यने धारण करनार ज्ञानस्वभावने विकल्पवडे अनुभवी शकातो नथी.
(१०७) परवस्तुने लक्षमां लेवी त्यां राग आवे छे. सम्यग्द्रष्टि जीव होय अने साचा देव–गुरु–शास्त्रनुं
लक्ष होय तोपण तेने पर तरफनी लागणी ते राग ज छे, तेनाथी धर्म नथी. ज्यां साचा देव–गुरु–शास्त्रना लक्षे पण
राग ज छे तोपछी कुदेवादिने माने तेनी तो वात ज शुं? जेने यथार्थ गुणोवडे जिनदेवनुं साचपणुं भास्युं नथी ते ज
कुदेवने माने छे. अत्यारे तो लोको जैन नाम धरावीने पण घरमां लोकपाल, पीर, क्षेत्रपाल, शीतळा, गोत्रीज वगेरे
अनेक प्रकारे कुदेवने माने छे ते महा अज्ञान छे. ज्यांसुधी कुदेवादिने साक्षात् आत्मानो घात करनार न माने
त्यांसुधी जीवने ज्ञाननी प्राप्ति थवानी नथी.
(१०८) आर्य माणस व्यवहारमां पण मांस खाय नहि. आर्य माणसने कोई मांसाहारी राजा साथे संबंध
थयो होय अने कोई वार ते राजा एम कहे के ‘आजे तो आपणे भेगा बेसीने जमीए, मारुं मन राखवा थोडीक
मांसवाळी कढी चाखो.’ तो राजाने सारुं लगाडवा खातर पण शुं आर्य माणस तेम करशे? नुकशान थाय तो भले
थाय परंतु व्यवहारमां सारुं लगाडवा माटे पण आर्य माणस ते मांस सामुं जुए नहि. पांच हजार रूपिया आपवा
पडे तो ते आपे परंतु मांस तो न ज खाय. तेम जिज्ञासु जीव लोक व्यवहारमां के घरमां सारुं लगाडवा माटे
कुदेवादिने कदी माने नहि. व्यवहारे घरमां पण कोई प्रकारना कुदेवने माने नहि. कोई प्रकारे कुदेवने मानवा ते घोर
पाप छे. जो के परद्रव्य लाभ–नुकशान करतुं नथी, परंतु पोतानो ऊंधो अभिप्राय ज महा नुकशाननुं कारण छे.
(१०९) हे जीव! जो तारे धर्म करवो होय तो पहेलां नक्की कर के साचा धर्मनुं स्वरूप दर्शावनार कोण छे?
केमके जीव अनादिथी धर्म समज्यो नथी तेथी पोते स्वच्छंंदे धर्म समजी शके नहि, माटे सत्य धर्मने दर्शावनारा देव–
गुरु–शास्त्र कोण छे ते परीक्षा करीने नक्की करवुं जोईए. देव–गुरु–शास्त्रने ओळख्या पछी पण जो पोते स्वाश्रये
पोताना स्वभावनो अभ्यास, परिचय अने अनुभव प्रगट न करे, पण देव–गुरु–शास्त्रना ज अवलंबनमां अटकी
रहे तो ते मुक्तिना मार्गे वळ्‌यो नथी पण संसारमार्गे ज छे.
(११०) अहीं तो जेने साचा देव–गुरु–शास्त्रनी ओळखाण थई छे अने स्वाश्रयवडे जेणे सम्यग्दर्शन–
ज्ञान तथा चारित्र दशा प्रगट करी छे एवा संत मुनिने भगवाननी स्तुतिनो विकल्प ऊठयो छे, पण विकल्पनो
अनादर करतां कहे छे के हे नाथ! आत्मस्वभाव विकल्पगम्य नथी पण ज्ञानगम्य छे. ज्यारे विकल्प तोडीने
स्वानुभवमां लीन थशुं त्यारे रागनो अभाव थतां स्तुति पूरी थशे अने स्तुतिना फळरूपे परम वीतराग
केवळज्ञानदशा प्रगट थशे. –प९–
(१११) हवे बे गाथा बाकी छे, तेमां आ ६०मी गाथामां आचार्यदेव पोतानी नम्रता दर्शावीने क्षमा मागे
छे के–हे गुणागार प्रभो! आपना गुणोनुं स्तवन करवामां इन्द्र पण असमर्थ छे, हुं अल्पबुद्धि छुं छतां में आपनुं
स्तोत्र रचवानुं जे साहस कर्युं छे ते माटे मने क्षमा करजो.
(११२) आचार्यदेवे कया दोषनी क्षमा मागी छे? पूर्ण वीतरागी ज्ञानघन स्वभावना अनुभवमां भंग
पडीने आजे विकल्प ऊठयो छे ते दोष थयो छे अने तेनी आचार्यदेव क्षमा मागे छे–एम गूढार्थ छे. हे नाथ! आपनुं
केवळज्ञान अनंत पूरुं छे अने हुं तो मतिश्रुत ज्ञानवाळो छुं, मारुं ज्ञान अल्प छे, आ अल्पज्ञानना लक्षे पूर्णता
प्रगटवानी नथी, पण विकल्प अने अपूर्णतानुं लक्ष छोडीने ज्यारे पूर्ण स्वभावना अनुभवमां एकाग्र थशुं त्यारे ते
पूर्णस्वभावना अवलंबने ज पूर्णता प्रगट थशे. आ रीते संत–मुनि पोतानी निर्मानता व्यक्त करे छे अने विकल्प
तोडीने पूर्णता करवानी भावना करे छे.
(११३) श्रीमद् राजचंद्रजीए आ शास्त्रने वंद्य कह्युं छे. आ एक शास्त्रना भाव बराबर समजे तो
अल्पकाळे मुक्ति पामे.
(११४) हे जिनेन्द्र! मारा नानकडा ज्ञानमां मोटी–केवळज्ञान लेवानी वात करी छे, ते माटे क्षमा
करजो...आमां खरेखर पोताना आत्मा प्रत्ये कहे छे के हे आत्मन्! हवे आ विकल्पथी खसी जा, रागथी खसी जा,
ज्ञानमूर्ति स्वरूपमां ठरी जा.