निधान छे, तेनामां रागनां निधान नथी. रागनां निधान खोदतां केवळज्ञान प्रगटशे नहि, पण चैतन्य निधान
खोदतां केवळज्ञान थाय छे. मारा जे परिपूर्ण चैतन्य स्वभावनुं अंतरध्यान करतां करतां ज केवळज्ञान प्रगटवानुं छे
ते चैतन्य स्वभावनी में प्रतीत करी छे. अने केवळज्ञान तथा सिद्धपद ते चैतन्य द्रव्यमां ज शक्तिपणे भर्या छे, तेमां
ज लीन थईने हुं केवळज्ञान प्रगट करवानो छुं.
प्रगट रहो. ज्ञान–दर्शनरूपी आपना चरण कमळ सदा प्रसन्न रहो. सूर्य तो सदा प्रकाशनो ज करनार छे तेम हे
प्रभु! आप अमने आनंदमां ज निमित्त छो. तमे वीतराग छो, रागमां तमारुं निमित्त नथी पण वीतरागपणामां ज
तमारुं निमित्त छे.–आम ज्ञानीओ वीतरागभावने ज जुए छे तेथी भगवानमां पण वीतरागताना ज निमित्त
तरीके आरोप आपे छे.
त्यां आ चारित्रदशा नहि रहे, परंतु हे जिनेश! सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानरूपी बे चरण कमळ तो सदा प्रसन्न
रहेशे, अमारां सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान तो अप्रतिहतपणे टकी रहेशे. ए दर्शन–ज्ञाननां जोरे, मनुष्यभवमां चारित्रनी
पूर्णता करीने केवळज्ञान ले’शुं. भगवानना चरणो प्रसन्न रहो एम व्यवहारे उपचारथी कह्युं छे, खरी भावना तो
ए छे के अत्यारे केवळज्ञान अटके छे तोपण पूरा स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञानरूपी बे चरणो केवळज्ञान थतां सुधी
अप्रतिहतपणे सदा टकी रहो. पंचमकाळमां चारित्रनो भंग पडे छे. परंतु संत–मुनि ते भंग उपर लक्ष न देतां दर्शन–
ज्ञाननी अप्रतिहत भावनाना जोरे केवळज्ञान साथे वर्तमानमां संधि करे छे...अने...ए रीते श्रीऋषभदेव
भगवाननी स्तुति पूरी थाय छे...
होय एम भासे छे.’
गई. बहारमां जिनवरदेवनी प्रतिमाना दर्शनथी बहारनी आंखो सफळ थई अने अंतरंगमां जिनवर स्वभावी
आत्माने देखतां ज अंतरना श्रद्धा–ज्ञानरूपी चक्षु सफळ थयां. हे जिन! आपने जोतां हुं मने सफळ मानुं छुं. विकल्प
थाय तेने हुं जोतो ज नथी. तारा दर्शनथी मारी आंखो सफळ थई, अवतार सफळ थयो अने अनंतकाळे नहि थयेलो
एवो अपूर्व आत्मभाव प्रगट थयो. तारी ओळखाणथी मारुं जीवन सफळ थयुं, धन्य थयुं. हे नाथ! तारा दर्शनथी
आत्मा आनंदमय थयो–अमृतथी सींचाई गयो, परंतु शरीर अने मन पण अमृतथी सींचाई गयां छे. जेम घणां
लांबा काळे पोताना पुत्रने जोतां ज साची माताना हृदयमां हर्ष उभराई जाय, पुत्र प्रेमथी छाती फूलाई जाय अने
वस्त्रनी कस तूटी जाय, तथा स्तनमांथी दूधनी धार छूटे...तेम हे चैतन्य भगवान! अनंतकाळे तारा दर्शन मळ्यां,
तारा दर्शनवडे स्वभाव समजवाथी मारो आत्मा उल्लसित थयो, मने अमृत मळ्युं, हुं कृतकृत्य थयो. अहा! एम न
समजशो के आचार्यदेवे आ वाणीनो विलास कर्यो छे, आ तो यथार्थ ओळखाणना भावनो ज्ञानीनो उल्लास छे.
असंख्य आत्मप्रदेश आनंदथी प्रफुल्लित थयां छे. हे नाथ! तारा दर्शन करतां मारो आत्मा तो अमृतरसथी सींचाई
गयो परंतु आत्मानी पाडोशमां रहेनारां आ शरीर, मन ने वाणीने पण तेनी छांट लागी तेथी ते पण अमृतरसथी
भींजाई गयां छे. आम जेने स्वभाव प्रत्ये अने जिनदेव प्रत्ये यथार्थ ओळखाण सहित उल्लास आवे तेणे ज
भगवानना दर्शन अने सारी भक्ति करी.