वैशाखः२४७३ः १२९ः
तथा नोकर्मोनो कर्ता तथा भोक्ता कहेवो ते बीजो नयाभास छे.
भावार्थः–जीवने मूर्तिक कर्मो तथा नोकर्मोनो कर्ता तथा भोक्ता कहेवो ते बीजो नयाभास छे. त्रेवीस
प्रकारनी पुद्गलवर्गणाओमांथी पांच प्रकारनी वर्गणाओनो आत्मा साथे संबंध छे; तेमांथी आहारवर्गणा,
तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा अने मनोवर्गणा नोकर्मरूपे परिणमे छे, अने कर्मवर्गणा कर्मरूपे परिणमे छे.
उपरनी गाथामां कहेला नयाभासपणानो खुलासो
नाभासत्त्वसिद्ध स्यादपसिद्धांततो नयस्यास्य।
सदनेकत्वे सति कलि गुणसंक्रांतिः कुत प्रमाणाद्वा।।५७३।।
गुणसंक्रातिमृते यदि कर्त्ता स्यात्कर्मणश्च भोक्तात्मा।
सर्वस्य सर्वसंकरदोषः स्यात् सर्वशून्यदोषश्च।।५७४।।
अन्वयार्थः–(अपसिद्धांततः) अपसिद्धांत होवाथी (अस्य नयस्य) आ उपर कहेला नयनुं (आभासत्त्वं)
नयाभासपणुं (असिद्धं न स्यात्) असिद्ध नथी, केम के (सत् अनेकत्वे सति) वस्तुने अनेकपणुं होवाथी अर्थात्
जीव अने कर्मो जुदा जुदा होवाथी (किल) खरेखर–निश्चयथी (कुतः प्रमाणात् वा) कया प्रमाणवडे
(गुणसंक्रातिः) (तेमनामां) गुणोनुं संक्रमण थई शके? (बे जुदी वस्तुओना गुणोनुं एकबीजामां संक्रमण थई शके
नहि.) अने (यदि) जो (गुणसंक्रातिं ऋते) गुण–संक्रमण वगर ज (आत्मा) आत्मा (कर्मणः) कर्मोनो (कर्ता
च भोक्ता स्यात्) कर्ता तथा भोक्ता थाय तो (सर्वस्य सर्वसंकरदोषः) बधा पदार्थोमां सर्व–संकरदोष (च
सर्वशून्यदोषः) तेमज सर्व–शून्यदोष (स्यात्) आवी पडशे.
भावार्थः– जीवने कर्मादिकनो कर्ता तथा भोक्ता कहेनारा नयमां नयाभासपणुं असिद्ध कही शकातुं नथी;
कारण के जीव अने कर्म–नोकर्मरूप पुद्गल भिन्न भिन्न द्रव्य छे. भिन्न द्रव्यने भिन्न द्रव्यनुं कर्ता–भोक्ता कहेनारो
जे नय छे तेमां, ‘तद्गुण संविज्ञान’ एवा नयना लक्षणनुं बहिर्भूतपणुं (–अभाव) होवाथी, अपसिद्धांतपणुं छे;
केम के गुणोना संक्रमण वगर कर्ता–भोक्तापणुं बनी शकतुं नथी अर्थात् कर्ता अने भोक्तापणुं होवाने माटे गुणोमां
परिणमन होवुं जोईए (–जो एक द्रव्यना गुणोनुं बीजा द्रव्यना गुणोरूपे परिणमन थाय तो ज एक द्रव्य बीजा
द्रव्यनुं कर्ता–भोक्ता थई शके; परंतु तेम बनी शकतुं नथी.) जो संक्रमण वगर ज–अर्थात् एक द्रव्यना गुणोनुं बीजा
द्रव्यना गुणरूपे परिणमन थया वगर ज कोई एक द्रव्यने कोई बीजा द्रव्यनुं कर्ता तथा भोक्ता मानवामां आवशे तो
गमे ते एक द्रव्य गमे ते बीजा द्रव्यनुं कर्ता–भोक्ता थई जशे अने कर्ता–भोक्तापणानो कोई नियम रहेशे नहि.
जीवने कर्म वगेरेनो कर्ता–भोक्ता कहेवामां भ्रमनुं कारण अने तेनुं समाधान
अस्त्यत्र भ्रमहेतुर्जी वस्याशुद्धपरिणतिं प्राप्य।
कर्मत्वं परिणमते स्वयमपि मूर्तिमद्यतो द्रव्यम्।।५७५।।
इदमत्रं समाधानं कर्त्ता यः कोपि सः स्वभावस्य।
परभावस्य न कर्त्ता भोक्ता व तन्निमित्तमात्रेऽपि।।५७६।।
अन्वयार्थः– (यतः मूर्तिमत् द्रव्यं) केम के मूर्तिमान एवुं पुद्गल द्रव्य (स्वयं अपि) पोतानी मेळे ज,
(जीवस्य अशुद्धपरिणतिं प्राप्य) जीवनी अशुद्ध परिणतिने पामीने (अर्थात् जीवनी अशुद्धपरिणतिनी हाजरीमां),
(कर्मत्वं परिणमते) कर्मरूपे परिणमी जाय छे–(अत्र भ्रम हेतु अस्ति) ते अहीं भ्रमनुं कारण छे. (अत्र इदं
समाधान) तेनुं समाधान अहीं आ प्रमाणे छे के (यः कोऽपि कर्ता) जे कोई पण कर्ता छे ते (सः स्वभावस्य)
पोताना स्वभावनो ज कर्ता छे, परंतु–(तन्निमित्तनात्रेऽपि) ते निमित्तमात्र होवा छतां पण– (परभावस्य)
परभावनो (न कर्त्ता वा भोक्ता) कर्ता के भोक्ता नथी.
भावार्थः– जीवने कर्मादिकोनो कर्ता तथा भोक्ता कहेवा संबंधी जे भ्रम छे तेनुं कारण आ प्रमाणे छे के–
कार्मणवर्गणारूप पुद्गलो कर्मपणाने प्राप्त थाय तेमां जीवनी अशुद्धपरिणति निमित्तमात्र छे; तेथी लोकोने एवो भ्रम थाय
छे के जड कर्मोनो कर्ता जीव छे. पण खरेखर जीवनी अशुद्ध परिणति कर्मरूप परिणमनमां फक्त निमित्तमात्र छे; कर्मोनो
कर्ता कर्म ज छे. फक्त निमित्तमात्रपणाथी तेनुं कांई पण कर्तापणुं जीवने आवी जतुं नथी. केम के जे कोईपण कर्ता होय छे ते
पोताना स्वभावनो ज कर्ता होय छे. फक्त निमित्तमात्रपणाथी कोई पण पदार्थ परभावनो कर्ता थई शकतो नथी.
हवे आ कर्ता–भोक्तापणा संबंधी द्रष्टांत आपे छे.
भवति स यथा कुलालः कर्त्ता भोक्ता यथात्म भावस्य।
न तथा परभावस्य च कर्त्ता भोक्ता कदापि कलशस्य।। ५७७।।
अन्वयार्थः– (स यथा) ते कर्ता–भोक्तापणुं आ प्रमाणे छे के, (यथा कुलालः) जेम कुंभार (आत्मभा–