Atmadharma magazine - Ank 043
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १२८ः आत्मधर्मः ४३
नाशंक्यं कारणमिदमेक क्षेत्रावगाहिमात्रं यत्।
सर्वद्रव्येषु यतस्थावगाहाद्भवेदतिव्याप्तिः।। ५६९।।
अन्वयार्थः– (यत् इदं एकक्षेत्रावगाहिमात्रं) अहीं “ते बंने (–शरीर अने जीव) एकक्षेत्रावगाही छे,
माटे जे आ एकक्षेत्रावगाहीपणुं छे ते (कारणं) मनुष्यादि शरीरने जीवनुं कहेवारूप व्यवहारमां कारण थशे.” एवी
(न आशक्यं) आशंका पण करवी नहि, (यतः) केम के (सर्वद्रव्येषु) बधा द्रव्योमां (तथावगाहात्)
एकक्षेत्रावगाहपणुं होवाथी (अतिव्याप्तिः भवेत्) (उपर्युक्त कथनमां) अतिव्याप्ति थई जशे.
भावार्थः–प६७–प६८ गाथामां कहेलो अपसिद्धांतपणानो दोष दूर करवा माटे ‘मनुष्यशरीर अने जीव ए
बंने एकक्षेत्रावगाही छे तेथी तेमनामां एकपणानो व्यवहार आवी शकशे’ एवी आशंका करवी न जोईए; केम के
एक क्षेत्रमां तो छ ये द्रव्यो रहे छे, तेथी जो एक क्षेत्रे रहेवाथी ज एकपणानो व्यवहार मानशो तो छये द्रव्योमां
एकत्वपणानो प्रसंग आवी पडशे. माटे एकक्षेत्रावगाहीपणाने लीधे शरीरने जीवनुं कहेवामां अतिव्याप्ति दोष
आवे छे.
शरीर अने आत्मामां बंध्य बंधकभाव छे एवी आशंका करवी न जोईए
अप भवति बन्ध्यबन्धकभावो यदिवानयोर्न शंक्यमिति।
तदनेकत्वे नियमात्तद्वन्धस्य स्वतोप्य सिद्धत्वात्।।५७०।।
अन्वयार्थः–(यदिवा) अथवा “(अनयोः) शरीर अने आत्मामां (बन्ध्यबन्धकभावो भवति)
बंध्यबंधकभाव छे” (इति अपि न शंकयं) एवी आशंका पण करवी न जोईए, केम के (नियमात
) नियमथी
(तत् अनेकत्वे) ते बंनेमां अनेकपणुं होवाथी (अर्थात् शरीर अने आत्मा जुदा होवाथी) (तद् बन्धस्य अपि) ते
बंनेनो बंध पण (स्वतः असिद्धत्वात्) स्वयं असिद्ध छे.
भावार्थः–शरीर अने आत्मामां बंध्यबंधकभावने कारणे एकधर्मीपणुं छे एवी आशंका पण करवी नहि; केम
के बे पदार्थोमां एकत्वबुद्धिजनक संबंध विशेषने बंध कहेवाय छे. शरीर अने आत्मामां एकत्वबुद्धिजनक संबंध न
होवाथी आत्मा अने शरीरमां बंध्यबंधकभाव पण नथी. माटे कोईपण प्रकारे एकधर्मीपणुं लगाडीने शरीरने जीवनुं
कहेवुं ते संबंधमां नयपणुं आवी शकतुं नथी.
जीव अने शरीरमां निमित्त–नैमित्तिक भाव पण नथी
अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमास्ति मिथः।
न यतः स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया।। ५७१।।
अन्वयार्थः–(अथ चेत्) जो कदाचित एम कहेवामां आवे के ‘(एतत् परस्पर) ए बंनेमां परस्पर
(निमित्त नैमित्तिकत्वं) निमित्तनैमितिकपणुं (अवश्यं अस्ति) अवश्य छे’–तो आ प्रकारनुं कथन पण ()
बराबर नथी; (यतः) केम के (स्वयं वा स्वतः) स्वयं अथवा स्वतः (परिणममानस्य) परिणमनारी वस्तुने
(निमित्ततया) निमित्तपणाथी (किं) शुं फायदो छे? अर्थात् स्वतः परिणमन शील वस्तुने निमित्तकारणथी कांई ज
प्रयोजन नथी.
भावार्थः–कदाचित एम कहेवामां आवे के “शरीर अने जीवने एकक्षेत्रावगाहिपणाथी के बंध्यबन्धकभावथी
भले एक धर्मीपणुं आवी शकतुं नथी अर्थात् तेमां नयनुं ‘तद्गुणसंविज्ञान’ , इत्यादि लक्षण लागु पाडीने नयपणुं
लावी शकातुं नथी, तो पण शरीर अने आत्माने परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव छे तेथी ते कारणे शरीरने जीवनुं
कहेवुं–ए रीते तेमां नयपणुं आवी जशे.” तो तेनो उत्तर आम छे के–दरेक द्रव्य स्वतः परिणमनशील छे. तो तेने
माटे निमित्तनी शुं जरूरियात छे? माटे, मनुष्य वगेरे शरीरने जीवनुं कहेवुं तेमां एकधर्मीपणुं सिद्ध न होवाथी अने
अनेकधर्मीपणुं सिद्ध होवाथी तेमनामां नयनो व्यवहार करी शकातो नथी. तेथी ते निमित्त–नैमित्तिक संबंधने पण
असद्भुत व्यवहार कही शकतो नथी. माटे निमित्त–नैमित्तिक संबंध नयाभास छे.
आ प्रमाणे एक नयाभासनुं स्वरूप कह्युं, हवे बीजा नयाभासनुं स्वरूप कहे छे.
बीजा नयाभासनुं स्वरूप
अपरोपि नयाभासो भवति यथा मूर्तस्य तस्य सतः।
कर्त्ता भोक्ता जीवः स्यादपि नोकर्म कर्म कृतेः।।५७२।।
अन्वयार्थः–(अपरोऽपि नयाभासः भवति) बीजा नयाभास पण छे, (यथा) जेम के–(तस्य
मूर्तस्यसतः) ते मूर्तिक वस्तुना (नोकर्मकर्मकृतेः) नोकर्म तथा कर्मरूप कार्यनो (अर्थात् परमाणुओनी नोकर्म तथा
कर्मरूप अवस्थानो) (कर्ता अपि भोक्ता) कर्ता अने भोक्ता (जीवः स्यात्) जीव छे;–अर्थात् जीवने मूर्तिक कर्मो