Atmadharma magazine - Ank 043
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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वैशाखः२४७३ः १२७ः
१०६. प्र.–पहेली गाथा उपरथी निश्चय–व्यवहार
कई रीते समजी शकाय छे?
उ.–सिद्ध समान पोतानो त्रिकाळ स्वभाव छे ते
निश्चय अने ते स्वभावना भानपूर्वक श्रद्धा ज्ञान
चारित्ररूप मोक्षमार्ग प्रगटयो ते व्यवहार छे, अने
सिद्धभगवानने नमस्कार कर्या ते पण व्यवहार छे.
१०७. प्र.–आ समयसार शास्त्रमां अभिधेय,
संबंधने प्रयोजन शुं छे?
उ.–शुद्धआत्मानुं स्वरूप ते अभिधेय छे,
शुद्धात्माना वाचक आ ग्रंथना शब्दो छे तेमनो अने
शुद्धात्मानो वाच्यवाचकरूप संबंध ते संबंध छे अने शुद्ध
आत्माना स्वरूपनी प्राप्ति थवी ते प्रयोजन छे.
१०८. प्र–पहेली गाथा सांभळीने जिज्ञासु जीवने
शुं आकांक्षा थाय छे?
उ.–पहेली गाथामां समय प्राभृत कहेवानी प्रतिज्ञा
करी, त्यां जिज्ञासुने ए आकांक्षा थाय छे के ‘समय’ एटले
शुं! तेथी बीजी गाथामां आचार्यदेवे ‘समय’ नुं (–जीवनुं)
स्वरूप वर्णव्युं छे.
***
नयाभास अथवा मिथ्यानयोनुं
स्वरूप
(अंक ४० थी चालुं)
नयाभासोनुं निरुपण करवानी प्रतिज्ञा
अथ सन्ति नयाभासा यथोपचाराख्य हेतु द्रष्टान्ताः।
अत्रोच्यन्ते केचिद्धेयतया वा नयादिशुद्धयर्थम्।। ५६६।।
अन्वयार्थः–(अथ) हवे (यथोपचाराख्य
हेतुद्रष्टान्ताः) जेना संज्ञा, हेतु द्रष्टांत अने उपचारने
अनुकूळ छे एवा जे (नयाभास सन्ति) नयाभासो छे
तेमांथी (केचित्त्) केटलाक नयाभासो (हेयतया)
त्याज्यपणे (वा) अने (नयादिशुद्धयर्थं) नय वगेरेनी
शुद्धि माटे (अळ्‌ उच्यते) अहीं कहे छे.
भावार्थः– ‘जीवने वर्णादिवाळो कहेवो ते असद्भूत–
व्यवहारनय छे’ एवा शंकाकारना प्रतिपादनने पूर्व
गाथामां नयाभास सिद्ध करीने हवे, नयनी परुपणानी
विशुद्धिने माटे हेयरूपमां केटलाक नयाभासोनुं स्वरूप बतावे
छे. केवां छे ते नयाभासो? के जेओमां नयनुं वास्तविक
लक्षण तो घटतुं नथी परंतु उपचार, संज्ञा, हेतु अने द्रष्टांत
द्वारा तेओ नय जेवा प्रतिभासित थया करे छे. आ
कथनद्वारा ग्रंथकारे नयाभासनुं स्वरूप पण बतावी दीधुं छे
अर्थात् जेनामां नयनुं लक्षण तो लागु पडे नहि परंतु
उपचार, संज्ञा, हेतु तथा द्रष्टांत देखाय तेने नयाभास
कहेवाय छे.
पहेला नयाभासनुं स्वरूप
अस्ति व्यवहारः किल लोकानामयमलब्ध बुद्धित्वात्।
येऽयं मनुजादिवपुर्भवति
सजीवस्ततोप्यनन्यत्वात्।। ५६७।।
सोऽयं व्यवहारः स्यादव्यवहारो यथापसिद्धांतात्।
अप्यपसिद्धांतत्त्वं नासिद्धं स्यादनेकधर्मित्वात्।।५६८।।
अन्वयार्थः–(लोकानं अलब्धबुद्धित्वात्) सर्व
साधारण लोको अलब्ध बुद्धिवाळा होवाथी अर्थात् तत्त्वना
जाणकार न होवाथी तेमने (किल) खरेखर (अयं व्यवहारः
अस्ति) आवो व्यवहार होय छे के, (यः) जे (अयं) आ
(मनुजादिवपुः) मनुष्य वगेरे शरीर छे (सः) ते ज (जीवः
भवति) जीव छे केम के (ततः अपि अनन्यत्वात्)
शरीरथी पण जीव अनन्य छे. परंतु (सः अयं व्यवहारः)
तेमनो आ व्यवहार (यथापसिद्धान्तात्) अपसिद्धांत जेवो
ज होवाथी अर्थात् सिद्धांत विरुद्ध होवाथी (अव्यवहारः
स्यात्) अव्यवहार ज छे; तथा (अनेकधर्मित्वात्) (शरीर
अने जीवने) अनेकधर्मीपणुं होवाथी (अपसिद्धांतत्त्व) तेनुं
अपसिद्धांतपणुं पण (असिद्ध न स्यात्) असिद्धि नथी.
भावार्थः–तत्त्वने नहि समजनारा साधारण लोको
‘मनुष्य वगेरे गति संबंधी जे शरीर छे ते जीवनां छे,
इत्यादि प्रकारे जे व्यवहार करे छे ते असद्भुत व्यवहारनय
छे एम कोईनुं कहेवुं छे; परंतु ते बराबर नथी. तेम ज
एवा लोकव्यवहारने व्यवहार ज कही शकातो नथी. केम के
नयनुं लक्षण ‘तद्गुणसंविज्ञान’ इत्यादि मानवामां आव्युं
छे, तेथी गुणगुणीमां भेदकल्पना वगेरेनुं नाम ज नय छे.
ज्यां धर्मी (–पदार्थ) जुदा जुदा होय त्यां नय कहेवो ते
सिद्धांत विरुद्ध छे. तेथी उपरना कथनमां अपसिद्धांत नामनो
दोष आवे छे. मनुष्यादि शरीर अने जीवमां भिन्नता छे,
भिन्न भिन्न वस्तु छे, तेथी शरीरने जीवनुं कहेवामां,
‘तद्गुणसंविज्ञान’ वगेरे जे नयनुं लक्षण छे ते लागु पडतुं
नहि होवाथी, अपसिद्धांत नामनो दोष आवे छे.
शरीर अने जीवने एकक्षेत्रावगाहपणुं होवाथी एकत्वनी
आशंका करवी तेमां अतिव्याप्ति दोष आवे छे.