Atmadharma magazine - Ank 043
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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वैशाखः२४७३ः १३१ः
पणुं (–बन्ध) नथी एवा पर पदार्थोमां पण आत्माना कर्ता भोक्तानो व्यवहार करे छे; जेम के–तेओ कहे छे के,
घर, धन, धान्य, स्त्री, पुत्र वगेरेने जीव उत्पन्न करे छे अने ते ज जीव भोक्ता होवाथी तेमने भोगवे छे.
उपरनी मान्यता पण नयाभास ज छे. जीवनो व्यवहार पर पदार्थमां होतो नथी पण पोतामां ज होय छे.
जीवने पर द्रव्य साथे संबंध बतावनारा बधा कथनो नयाभास छे.
शंका
ननु सति गृहवनितादौ भवति सुखं प्राणिनामिहाध्यक्षात्।
असति च तत्र न तदिदं तत्तत्कर्ता स एव तद्भोक्ता।।५८२।।
अन्वयार्थः–(ननु) शंकाकार कहे छे के, (इह प्राणिनां) आ जगतमां प्राणीओने (गृहवनितादौ सति)
घर, स्त्री वगेरेना होवाथी (अध्यक्षात् सुखं भवति) प्रत्यक्षपणे सुख थाय छे, (च तत्र असति) अने ते घर, स्त्री,
वगेरेना न होवाथी (तत् इदं न) तेमने ते सुख थतुं नथी; (तत्) ते कारणे (स एव) जीव ज (तत्कर्ता
तद्भोक्ता) ते घर, स्त्री वगेरेनो कर्ता अने तेमनो भोक्ता छे.
भावार्थः–शंकाकार एम कहे छे के, ‘जीव पर वस्तुनो कर्ता तथा भोक्ता छे’ एवा कथनने नयाभास कहेवुं
ते बराबर नथी, केम के आ वात तो प्रत्यक्ष छे के घरबार, स्त्री, पुत्र वगेरेना होवाथी ज जीवने सुख थाय छे अने
तेमना न होवाथी सुख थतुं नथी; माटे जीव ज ते पदार्थोनो कर्ता–भोक्ता छे अर्थात् जीव ज पोतानी सुखसामग्रीनो
(–बाह्य पदार्थोनो) कर्ता तथा भोक्ता छे–एम मानवामां शुं दोष छे?
समाधान
सत्यं वैषयिकमिदं परमिह तदपि न परत्र सापेक्षम्।
सति बहिरर्थेपि यतः किल केषांचिद सुखादिहेतुत्वात्।।५८३।।
अन्वयार्थः– (सत्य) ठीक छे–(इह) आ जगतमां (इदं) आ सांसारिक सुख (परं वैषयिकं) केवळ
वैषयिक छे अर्थात् विषयोमां सुखनी मात्र कल्पना करी छे, (तदपि) छतां पण (परत्र सापेक्ष न) ते कल्पित सुख
पर विषयोनी अपेक्षाथी नथी (यतः) केम के (किल) निश्चयथी (बर्हि अर्थे सति अपि) ते बाह्य पदार्थो हाजर
होवा छतां पण (केषांचित्त्) कोईने ते गृह, स्त्री वगेरे (असुखादिहेतुत्वात्) असुखादिकना हेतु थाय छे.
भावार्थः– ए बधा सांसारिक सुख वैषयिक छे–विषयोमां कल्पेला छे; अने ते वैषयिक सुखोमां एवो मेळ
नथी रहेतो के बाह्य पदार्थरूप स्त्री, पुत्र वगेरेना रहेवाथी बधाने सुख ज प्राप्त थाय. केम के ज्यारे अशुभ अघाति
कर्मना उदयथी दुष्ट स्त्री, पुत्र वगेरेनो संयोग थाय छे त्यारे तेमना कारणे (–निमित्तथी) दुःख पण थतुं देखाय छे.
माटे ते बाह्यपदार्थो साथे सुखनी प्राप्ति (सुखनो मेळ) नथी; अने तेमना रहेवाथी बधाने सुख थाय ज छे एवा
कथनने पण निर्दोष कही शकातुं नथी. आ रीते सिद्ध थाय छे के जीवने पर पदार्थोनो कर्ता तथा भोक्ता कहेवो ते नय
नथी परंतु नयाभास छे.
हवे ग्रंथकार आ बधा कथननुं तात्पर्य जणावे छे अने पछी अन्य नयाभास वर्णवे छे.
तात्पर्य
इदमत्र तु तात्पर्यं भवतु स कर्ताथ वा च मा भवतु।
भोक्ता स्वस्य परस्य च यथाकथंचित्त्चिदात्मको जीवः।।५८४।।
अन्वयार्थः–(सः स्वस्य च परस्य) ते जीव स्वनो के परनो (कर्ता च भोक्ता) कर्ता तथा भोक्ता (भवतु
अथवा मा भवतु) हो के न हो परंतु (अत्र इदं ताप्तर्यं तु) अहीं तात्पर्य आ छे के, (जीवः) जीव
(यथाकथंचित्त्) कोई पण प्रकारथी–गमे ते रीते (चिदात्मकः) ज्ञानस्वरूप ज छे (तेथी ज्ञान सिवाय बीजुं कांई
तेनुं कर्तव्य नथी.)
भावार्थः–सारांश ए छे के व्यवहारमां जीव पर पदार्थोनो कर्ता तथा भोक्ता कहेवाय के न कहेवाय– तेनाथी
अमने कांई प्रयोजन नथी; परंतु अहीं अध्यात्मवादथी अमने फक्त एटलुं ज प्रयोजन छे के जीव कोईपण प्रकारथी
ज्ञान स्वरूप ज छे. जीवनी बधी ज पर्यायो कदी पोताना चेतनपणाने छोडती नथी माटे वास्तविकपणे जीवना
निजभावोनो कर्ता अध्यात्मवादथी आत्मा ज छे अने कर्तानी जेम निजभावोनो भोक्ता पण आत्मा ज छे.
नोंधः– ‘व्यवहारमां जीव पर पदार्थोनो कर्ता तथा भोक्ता सिद्ध हो के न हो तेनाथी अमने कांई प्रयोजन
नथी’ एम अहीं कह्युं छे, तेथी ते वात शंकाशील राखी छे–एम न समजवुं, परंतु एम आशय समजवो के पराश्रित
व्यवहारने अप्रयोजनभूत ठरावीने तेनुं ज लक्ष छोडाव्युं छे, अने स्वाश्रित ज्ञानस्वभाव ते ज प्रयोजनवाद भूत
होवाथी तेनुं लक्ष ठराव्युं छे.