ः १३२ः आत्मधर्मः ४३
हवे चोथा नयाभासनुं स्वरूप कहे छे
अयमपि च नयाभासो भवति मिथो बोध्यबोधसम्बन्धः।
ज्ञानं ज्ञेयगतं वा ज्ञानगतं ज्ञेयमेतदेव यथा।।५८५।।
अन्वयार्थः–(अयं अपि च नयाभासः भवति) आ पण नयाभास छे के–(मिथः) ज्ञान अने ज्ञेयने
परस्पर (बोध्यबोधक सम्बन्धः) बोध्यबोधक सम्बन्ध छे, (यथा) जेम के (ज्ञानं ज्ञेयगतं) ज्ञान ज्ञेयगत छे
(वा) अने (एतत् ज्ञेयं एव ज्ञानगतं
) ते ज्ञेय पण ज्ञानगत छे.’भावार्थः– ज्ञेय–ज्ञायक सम्बन्धने लीधे ज्ञानने ज्ञेयगत कहेवुं तथा ज्ञेयने ज्ञानगत कहेवा ते पण नयाभास छे.
सम्यग्द्रष्टिनी प्रशंसा –
सज्जन सम्यग्द्रष्टिनी प्रशंसा करतां श्री बनारसीदासजी कहे छे के–
भेद विज्ञान जग्यो जिनके घट शीतल चित्त भयो जिम चंदन;
केलि करे शिव मारगमें जगमांहि जिनेश्वर के लघुनंदन.
सत्य स्वरूप सदा जिन्ह के प्रगटयो अवदात मिथ्यात निकंदन,
शांत दशा तिनकी पहिचान करै कर जोरि बनारसी वंदन.
(नाटक समयसार)
अर्थः–जेना अंतरमां भेदविज्ञाननो प्रकाश प्रगट थयो छे तेनुं हृदय चंदन समान शीतळ थयुं छे, ते
मोक्षमार्गमां क्रीडा–केलि करे छे अने आ जगतमां ते जिनेश्वर देवना लघुनंदन (युवराज) छे.
सम्यग्दर्शन वडे जेना आत्मामां सत्य स्वरूप प्रकाशमान थयुं छे अने मिथ्यात्वनुं निकंदन काढी नाख्युं छे
एवा सम्यग्द्रष्टि भव्य आत्मानी शांतिने जोईने हुं तेमने हाथ जोडीने नमस्कार करुं छुं–एम बनारसीदासजी कहे छे.
(आ काव्यथी जणाय छे के कविवरनुं हृदय केटलुं विशाळ अने उदार छे; तेमने कोई व्यक्तिना पक्षनो मोह
नथी, पण जेमना हृदयमां आत्मविज्ञानना तरंगो उछळे छे ए ज तेमना उपास्य छे. काव्यमां ‘जिनेश्वर के
लघुनंदन’ ए शैली घणी ज सुंदर अने गंभीर छे...ते प्रशंसनीय छे.)
(जैन कवियों का ईतिहास पा. प२)–कविवर बनारसीदासजी
उपर्युक्त कथन नयाभास केम छे तेनुं कारण
चक्षु रूपं पश्यति रूपगतं तन्न चक्षुरेव यथा।
ज्ञानं ज्ञेयमवैति च ज्ञेयगतं वा न भवति तज्ज्ञानम्।। ५८६।।
अन्वयार्थः–(यथा चक्षु रूप पश्यति) जेम आंख रूपने देखे छे परंतु (तत् चक्षुः एव रूपगतं न) ते
आंख ज पोते रूपमां प्रवेशी जती नथी, ते ज प्रमाणे (ज्ञानं ज्ञेयं अवैति च) ज्ञान ज्ञेयोने जाणे छे तो पण (तत्
ज्ञानं ज्ञेयगतं न वा भवति) ते ज्ञान ज पोते ज्ञेयोमां प्रवेशी जतुं नथी.
भावार्थः– जेम आंख रूपने देखे छे, परंतु तेटला मात्रथी ते आंख कांई रूपमां प्रवेशी जती नथी, ते ज रीते
ज्ञान ज्ञेयोने जाणे छे, परंतु तेटला मात्रथी ते ज्ञान कांई ज्ञेयोमां प्रवेशी जतुं नथी. माटे, ज्ञेयज्ञायक संबंधने लीधे
ज्ञानने ज्ञेयगत कहेवुं ते नयाभास छे. अहीं ग्रंथकारे ज्ञेयने ज्ञानगत कहेवा संबंधमां जो के लख्युं नथी, पण एम
समजवुं के, जेम ज्ञाननो प्रवेश ज्ञेयोमां नथी तेम ज्ञेयोनो पण ज्ञानमां प्रवेश नथी.
उपसंहार
इत्यादिकाश्च बहवः सन्ति यथालक्षणा नयाभासाः।
तेषामयमुद्रेशो भवति विलक्ष्यो नयान्नयाभासः।। ५८७।।
अन्वयार्थः–(इत्यादिकाः च बहवः) इत्यादि बीजा पण घणा (यथालक्षणा नयाभासाः सन्ति)
पोतपोताना लक्षण अनुसार नयाभास छे (और) अने (नयात् नयाभासः विलक्ष्यो भवति) नय करतां
नयाभास विलक्षण होय छे (अयं तेषां उद्देशः) आ तेनो (उपर्युक्त सर्व कथननो) उद्रेश छे अर्थात् नयथी जे
विरुद्ध लक्षणवाळा होय तेने नयाभास कहेवाय छे.
भावार्थः– अहीं चार नयाभासो वर्णव्या छे; ते सिवाय, पोतपोतानां लक्षण अनुसार बीजा पण जे अनेक
नयाभासो छे ते सर्वने नय समजवा न जोईए पण नयोथी विरुद्ध लक्षणवाळा होवाथी तेमने नयाभास जाणवा
जोईए. जे नयनी समान तो मालुम पडे परंतु जेनामां ‘तद्गुणसंविज्ञान (वस्तुना पोताना गुणने दर्शाववुं ते)
‘इत्यादि नयनुं वास्तविक लक्षण बंध बेसतुं न होय तेने नयाभास कहे छे.
जीवने परद्रव्यो साथे संबंध बतावनारा बधा कथनो नयाभास छे.
आ प्रमाणे सम्यक्नयनुं तथा मिथ्यानयनुं स्वरूप बताव्युं. * * *