Atmadharma magazine - Ank 043
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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वैशाखः२४७३ः १३३ः
– रुचिनुं वलण –
संयोग पडखांथी चैतन्य पडखुं भिन्न छे. रागादि ते पण चैतन्यपडखुं नथी पण संयोगपडखुं छे. जो
संयोगनी अपेक्षा छोडीने एकला चैतन्यने लक्षमां ल्यो तो ते परिपूर्ण ज छे, तेमां रागादि नथी. आत्मानो मार्ग
एकला आत्मा साथे ज संबंध राखे छे. एकलो आत्मा एटले परिपूर्ण आत्मा; चैतन्य पडखांने चूकीने जे संयोगनी
अनुकूळतामां के प्रतिकूळतामां लीन थई जाय छे तेने संयोगनी ज रुचि छे पण आत्माना चैतन्यस्वरूपनी रुचि
नथी. हुं परनुं करी शकुं अने संयोग अनुकूळ होय तो मने ठीक पडे–एवी मान्यता ते ज संयोगनी लीनता अने
चैतन्यनी अरुचि छे. प्रतिकूळता वखते चैतन्यने चूकीने जेने अंतरंगमां अणगमो थाय छे तेने अनुकूळता वखते
पण ते संयोगनी ज रुचि छे. अनुकूळ संयोग हो के प्रतिकूळ संयोग हो, ते बंनेथी मारुं चैतन्यस्वरूप भिन्न छे अने
संयोगना लक्षे जे राग–द्वेष थाय तेनाथी पण मारुं चैतन्यस्वरूप भिन्न छे. मारुं चैतन्यस्वरूप परनुं तो कांई करे
नहि अने रागद्वेष करवानो पण तेनो स्वभाव नथी–आम जेने भिन्न चैतन्य स्वभावनुं भान होय ते कोई पण
संयोगमां चैतन्यने चूकीने लीन न थाय. पर्यायमां क्षणिक रागद्वेष होवा छतां रुचिनुं वलण कई बाजु छे तेनी
अहीं वात छे. रुचिना वलण अनुसार धर्म के अधर्म थाय छे.
जेम कोईए बे जुदा जुदा माणसने रूपिया धीर्या होय अने ज्यारे पाछा लेवा जाय त्यारे एक एम कहे छे
के–‘रूा. नथी आपवानो, ताराथी थाय ते करी लेजे.’ अने बीजो एम कहे छे के–‘भाई! तमारा रूा. पाछा
आपवानुं हुं भूल्यो नथी, पण हमणां सगवड नथी तेथी आपी शकतो नथी; थोडा वखतमां हुं रूा. पाछा आपी
दईश.’ त्यां जो के बाह्यमां तो बंने माणसोए रूा. आप्या नथी छतां एक ना पाडे छे अने बीजो हा पाडे छे–ए
केटलो फेर छे? तेम ज्ञानीओ कहे छे के ‘आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, रागद्वेष तेनो स्वभाव नथी.’ त्यारे, पर्यायमां राग–
द्वेष होवा छतां एक एम स्वीकारे छे के “हुं चैतन्यस्वरूप ज छुं अने आ राग–द्वेष मारुं स्वरूप नथी. अत्यारे
नबळाईने लीधे पर्यायमां राग–द्वेष छे, पण मारुं स्वरूप तेनाथी भिन्न छे एवी चैतन्यनी जागृति हुं भूल्यो नथी.”
अने बीजो एम माने छे के ‘अत्यारे आ राग–द्वेष करवा जेवा छे, एटले राग–द्वेष आत्मानुं स्वरूप छे.’ त्यां
पर्यायमां बंनेने राग–द्वेष होवा छतां एक राग–द्वेषनो नकार करीने चैतन्यस्वभावनो स्वीकार करे छे, अने बीजो
राग–द्वेषने पोतानां मानीने चैतन्यस्वभावनो नकार करे छे. आटलुं आकाश–पाताळ जेवुं अंतर सत्ना हकार अने
नकारमां छे. सत्स्वभावनो हकार लावनार साधक थईने राग–द्वेष टाळीने सिद्ध थशे अने सत्स्वरूपनो नकार
लावनार रागादिनो आदर करी तद्न हीणीपर्याय पामशे. सत्नी रुचि अने हकार आववो तेमां ज्ञाननी क्रिया छे ते
जगतने भासती नथी. हजी जेनुं रुचिनुं वलण परथी खसीने चैतन्य तरफ ढळ्‌युं नथी ते धर्म क्यां करशे? चैतन्यनी
जागृति चूकीने जेने विषयोमां राग–द्वेष छे तेने विषयेच्छा छे, त्यागी थाय अने व्रत तप करे तोपण ते संसार भोग
हेतुए ज छे. ज्ञानीने निरंतर प्रतिसमय स्वरूपनो समभाव वर्ते छे अने तेटले अंशे तेमने स्वरूपनुं अखंड आचरण
खील्युं छे. आ रीते चैतन्यस्वभावनी यथार्थ रुचि ते ज सम्यग्दर्शन छे अने ते ज धर्मनुं मूळ छे.
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– मिथ्याद्रष्टिनुं वर्णन –
धरम न जानत वखानत भरम रूप
ठौर ठौर ठानत लडाई पक्षपात की,
भूल्यो अभिमानमें न पांव धरे धरनीमैं
हिरदमें करनी विचारे उत्पात की.
फिरै डांवाडोल सो करम के कलोलनि में
हवै रही अवस्था जयूं व भूल्या कैसे पातकी
जाकी छाती ताती कारी कूटिल कुवाती भारी
एसो ब्रह्म–घाती है मिथ्याती महा पातकी.
(नाटक समयसार)
अर्थः–जे पोते धर्मने जरापण जाणतो नथी अने धर्मना स्वरूपनुं भ्रमरूप व्याख्यान (वर्णन) करे छे, धर्मना
नामे दरेक प्रसंगे पक्षपातनी लडाई कर्या करे छे, जे अभिमानमां मस्त थईने भान भूल्यो छे अने जमीन पर पग मूकतो
नथी (अर्थात् पोताने महान समजे छे), जे पोताना हृदयमां हंमेशा उत्पातनी करणी ज विचारे छे, तूफानमां पडेला
पांदडानी जेम जेनी हालत शुभाशुभ कर्मोना तरंगमां डामाडोळ थई रही छे, कूटिल पापनी आगथी जेनुं अंतर तपी रह्युं
छे–एवो महा दुष्ट, कूटिल, पोताना आत्मस्वरूपनो घात करवावाळो मिथ्याद्रष्टि महा पातकी छे.
(जैन कवियोंका ईतिहास पा. प३)–कवि बनारसीदासजी