करीने साधनामां आगळ वधतां वधतां पूर्ण दशा प्रगट करे छे, ते ज भगवान छे. दरेक आत्मा पोताना स्वभावनुं
भान करीने तेवी दशा प्रगट करी शके छे.
पापना भावो ते विकार छे, ए कोई आत्मानुं स्वरूप नथी, तेमां आत्मानो धर्म नथी. आत्मानो धर्म तो पोतानी
निर्मळ पर्यायमां छे; आत्मानो त्रिकाळ स्वभाव सच्चिदानंद छे, ते स्वभावनी ओळखाण थईने लीनता करवी ते ज
धर्मीनो धर्म छे. धर्मी जीवो श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळदशापणे ज उपजे छे–निर्मळदशाने ज ग्रहे छे अर्थात् धर्मी
जीवनो जन्म (उत्पाद्) पोतानी निर्मळ पर्यायरूपे ज थाय छे, पण विकारपणे के जड शरीरपणे धर्मी जीवो कदी
उपजता नथी, तेम ज तेने पोतापणे ग्रहता नथी. अज्ञानीओ जड शरीरना जन्मने भगवाननो जन्म माने छे,
ज्ञानीओ निर्मळ पर्यायना जन्मने ज भगवाननो जन्म माने छे. व्यवहारे एटले के जडना संयोगनी अपेक्षाए
कथन करीए तो भगवाननो जन्म थयो एम कहेवाय, पण खरेखर भगवाने जन्मने ग्रहण कर्यो ज नथी.
भगवान तो धर्मात्मा हता, जडथी अने विकारथी भिन्न चैतन्य स्वभावने ओळखनारा हता. धर्मात्मानुं लक्षण
वर्णवतां आ ७७मी गाथामां कह्युं के धर्मीओ कदी पर द्रव्यने ग्रहण करता नथी, पर द्रव्यपणे उपजता नथी. तो पछी
महावीर भगवाननो आत्मा जड शरीरने केम ग्रहण करे? धर्मात्मा तो पोताना आत्मामां निर्मळदशाने ग्रहे छे,
परंतु जन्मने आत्मामां ग्रहता नथी. जन्मने तो जड परमाणुओ ग्रहे छे. जड शरीरपणे जड परमाणुओ ज उपज्यां
छे, पण भगवान ते रूपे उपज्यां नथी. वर्तमानमां अल्प रागादि छे पण तेने ज्ञानी ग्रहता नथी, ते रहित शुद्ध
आत्म पर्यायने ज ग्रहे छे. आम साचुं भेदज्ञान करवुं ते ज साचो जन्मकल्याणक उत्सव छे, अने ते ज आ आत्माने
कल्याणनुं कारण छे.
परंतु ए बधामां आत्माने भूलीने वात छे. महावीर भगवाने तो एम जाहेर कर्युं छे के–जगतना बधा जीव
अने जड पदार्थो स्वतंत्र छे; एक पदार्थ बीजा पदार्थने कांई ज करवा समर्थ नथी. पर जीवने जीवाडवो के
मारवो ते आ जीव करी ज शकतो नथी. माटे आत्मस्वभावनी ओळखाण करवानुं अने पर पदार्थोना
कतृत्वनो अहंकार छोडवानुं भगवाने कह्युं छे.
मान्युं छे. जो ए बधी वस्तुओमां सुख खरेखर होय तो तेनी हाजरीमां पण जीव केम दुःखी थाय छे? स्त्री, पैसामां
सुख कल्प्युं होय पण ज्यारे झेरी वींछी करडे त्यारे, पैसा वगेरे एम ने एम होवा छतां सुखनी कल्पना टळीने
दुःखनुं वेदन करे छे. माटे परमां सुख तो नथी, परंतु परमां सुखनी जे कल्पना करी हती तेमां पण सुख नथी. तेथी
ते कल्पना तथा राग–द्वेष पण जीवनुं स्वरूप नथी. आत्मा ज्ञानस्वभावी छे; ते ज्ञान पोते दुःखरूप न होई शके
एटले ज्ञान पोते ज सुखरूप छे. पहेलां ज्ञानस्वभावने भूलीने आत्मानुं लक्ष पैसा उपर हतुं अने तेमां सुखनी
कल्पना करी हती, पछी वींछी करडयो अने शरीर उपर लक्ष जतां पोते तेमां दुःखनी कल्पना करी. जेम शरीरना लक्षे
पैसामां सुखनी कल्पना फेरवी, तेम आत्मस्वभावना लक्षे