Atmadharma magazine - Ank 043
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १३६ः आत्मधर्मः ४३
ते कल्पनानो नाश कर के मारुं सुख तो मारामां छे शरीरमां के पैसामां क्यांय मारुं सुख नथी. आवुं स्वभावनुं
श्रद्धा–ज्ञान करवुं ते ज धर्म छे, अने भगवाने ते ज करवानुं कह्युं छे.
‘हुं तो स्वतंत्र आत्मा छुं, शुं हुं शरीररूपे उपजुं? शुं हुं शरीरने लईने सुखी? शरीरथी तो भिन्न छुं, पण
शरीरना लक्षे जे पुण्य–पापनी लागणीओ थाय तेमां पण मारुं सुख नथी.’–एम जेणे भान कर्युं छे ते जीव कदी
जन्मतो नथी. खरेखर आजे महावीर भगवान जन्म्या नथी, भगवान त्रिशला माताना शरीरमां आव्या अने सवा
नव महिने जन्म्या एम कहेवुं ते उपचार छे, खरेखर तो ते आत्माए पोतानी पहेली निर्मळदशा फेरवीने बीजी
विशेष निर्मळदशा ग्रहण करी छे, अने ते निर्मळदशारूपे उपजता थका तेमां ज तेओ व्याप्या छे, पण जड शरीरमां
तेओ व्याप्या नथी.
भगवानना जन्म कल्याणकनुं साचुं स्वरूप शुं अने ते क्यारे उजव्यो कहेवाय ते बतावाय छे. भगवाननो
आत्मा निर्मळदशारूपे उपज्यो ते ज परमार्थे जन्म कल्याणक छे. भगवान पोताने त्रिशला राणी अने सिद्धार्थ
राजाना पुत्र पण मानता नथी अने शरीरने पण पोतानुं मानता नथी. भगवान तो पोताने आत्मा जाणे छे; शुं
आत्मा के तेनी पर्याय कोई बीजाथी उपजे? आत्माने माता–पिता होय नहि. आत्मस्वभावमांथी जे निर्मळदशा
उपजी ते ज आत्मानी प्रजा छे. ज्यारे शरीर वडे भगवानने ओळखाववा होय त्यारे एम बोलाय के त्रिशलादेवी
अने सिद्धार्थ राजाना पुत्र महावीर हता. पण ए तो बाह्य छे; धर्मात्मा तो पोताना चैतन्य–स्वभावमां रमे छे. अने
ते स्वभावमांथी आनंदनी पर्यायरूपी पुत्रनो जन्म थाय छे. पोतानी निर्मळ पर्यायने छोडीने धर्मात्मा बीजे क्यांय
उपजता नथी. जेओए आत्मसाक्षात्कार कर्यो छे एवा ज्ञानी पुरुषो चोथा गुणस्थाने होय अने राग होय तो पण
तेओ क्यांय बहारमां के रागमां उपजता नथी पण शुद्ध पर्यायमां ज उपजे छे.
महावीर भगवाननो आत्मा पण पहेला तो संसार दशामां हतो. राग–द्वेष रहित परिपूर्ण ज्ञानस्वभाव
दरेक आत्मामां छे–ते स्वभावनुं भान करीने तेओ पोतानी निर्मळ अवस्थारूपे उपज्या–ए ज साचो जन्म छे.
अनादिथी अज्ञानने लीधे विकारनुं कर्तृत्व मानीने विकारपणे उपजतो हतो तेने बदले हवे स्वभावना भान वडे
विकारनुं कर्तृत्व छोडीने पोतानी निर्मळ परिणतिरूपे ज उत्पाद थयो–ए ज साचो जन्मकल्याणक छे. साधक
धर्मात्माने रागादि होय खरा पण तेने पोतापणे मानीने तेना कर्ता थता नथी, पण अंतरद्रष्टि वडे पोतानी विशेष
निर्मळ ज्ञानदशाने ज करे छे. भगवाने पूर्वे तीर्थंकर गोत्रना पुण्य बांध्या अने त्रिशलामातानी कुंखे जन्म थयो–एम
बोलाय, पण खरेखर भगवाने पूर्वना पुण्य पण कर्या नथी. अवतार थाय एवा कर्मो धर्मात्माना होय नहि,
धर्मात्मा तो विकारमां के शरीरमां उपजता ज नथी, ते तो जडनुं कार्य छे. अज्ञानी जीवो पुण्यथी अने पुण्यना फळथी
भगवाननो महिमा माने छे अने भगवानने पण जडना तथा पुण्यादि विकारना स्वामी ठरावे छे. आत्माना शुद्ध
स्वभावनी प्रतीत अने अनुभव करतां जे निर्मळ पर्याय प्रगटी ते निर्मळ पर्यायरूपी कार्यने ज ज्ञानी करे छे. मारा
सुख माटे मारे कोई पर संगनी जरूर नथी. अने विकारभावमां पण मारुं सुख नथी, मारा स्वभावमांथी जे
निर्मळदशा प्रगटी ते सुखरूप छे–आवी आत्मा वडे प्रतीत करे ते धर्मात्मा छे. अज्ञानीओए मूढपणे निर्मळ
चैतन्यपरिणतिने वलोवी नाखीने परमां सुखनी कल्पना करी छे ते ज जन्म–मरणनुं कारण छे.
जेम घडारूपे माटी उपजे छे, कुंभार ते रूपे उपजतो नथी, तेम जड शरीरपणे परमाणुओ उपजे छे, आत्मा
ते रूपे उपजतो नथी. ज्ञानी पोताना ज्ञानपणे ज उपजे छे, पण परपणे उपजता नथी. सम्यग्दर्शन प्रगट थयुं ते
निर्मळ पर्यायने ज ग्रहे छे, बाह्यथी भले ते स्वर्गमां हो के नरकमां हो, के माताना पेटमां हो पण ते कोईने ग्रहता
नथी. पोताना आत्मस्वभावथी बाह्य स्थित कोई पण पदार्थोने धर्मात्मा पोतानो मानता नथी तेमज तेना कर्ता
थता नथी. पण पोताना शुद्ध भावना ज कर्ता थाय छे. स्वर्गमांथी च्यवन करीने त्रिशलामातानी कुंखे आव्या ते
वखते रस्तामां पण धर्मात्मा महावीरे पोतानी निर्मळ पर्यायने ज ग्रहण करी छे, पण पुण्यना परमाणुओनुं के
विकारनुं ग्रहण कर्युं नथी.
लोको अंतर आत्मस्वभावने ओळखता नथी अने बाह्य कल्पनाथी धर्म मानी रह्या छे, तेथी भगवान
महावीरनी महत्ता पण बहारथी ज माने छे, तेमना