आत्माने भूलीने जडना संयोगथी तेमने ओळखे छे! तेमना शरीरनुं बळ, माता–पिता के पुण्यनो ठाठ वगेरे
संयोगथी ओळखवा ते तो बहिद्रष्टि छे–मिथ्यात्व छे. अने तेमना आत्मानी निर्मळ पर्यायथी ओळखवा ते यथार्थ
ओळखाण छे. भगवान महावीर आत्मानुं भान साथे लईने आव्या छे अने आज भवे पूर्ण शुद्धता प्रगट करी
जन्मनो अंत लावी सिद्ध थवाना छे–तेथी तेओनी महत्ता छे. शुं पुण्यना जड परमाणुथी आत्मानी महत्ता होय?
खावा पीवानी क्रिया बहारमां थती होय अने राग पण थतो होय छतां धर्मात्मा सम्यग्द्रष्टि ते वखते पण आत्मानी
निर्मळता सिवाय बीजुं कांई ग्रहता नथी.
पुत्र होय तेनुं मृत्यु थई जाय ते वखते, पुत्रने ज जीवननुं सर्वस्व मानी राख्युं होय तेथी पुत्र प्रेमने लीधे जे
अंतरथी आघात लागे तेनुं कोई रीते समाधान थाय नहि. स्त्री–पैसा–आबरू–शरीर वगेरे बधुं होवा छतां ‘मारो
पुत्र’ एवी रुचिनी धूनमां एकाकार थईने ते बधायने भूली जाय छे. बस, तेम धर्मात्माओए पोतानुं सर्वस्व
पोताना स्वभावमां जाण्युं छे–मान्युं छे. तेथी विकार भाव आजे छतां स्वभावनी रुचिनी धूनमां ते कोईने ग्रहण
करता नथी. धर्मात्मा पोताना स्वभाव सिवाय अन्यने स्वप्ने पण ग्रहण करवानी भावना करता नथी. पोताना
आत्मस्वभावने ज याद करतां कोई लक्ष्मी, शरीर, जन्म–मरण के विकारने याद करता नथी. जेम अज्ञानी पुत्रने
पोतानो मानीने ते पुत्रनी धूनमां लक्ष्मी वगेरेने भूली जाय छे तेम ज्ञानीओ एवी प्रतीत करे छे के मारा स्वभावनी
द्रष्टिथी जे स्वभावदशा थई तेमां हुं, परमां के परना लक्षे जे विकार थाय तेमां हुं नहि. आवी द्रष्टिना जोरथी
ज्ञानीओने समये समये शुद्धता वधे छे अने तेओ कदी विकारमां के परनी रुचिमां पकडाता नथी.
स्वभावनुं भान कर्या वगर बीजा कोई उपायथी जन्म–मरणनो अंत आवे नहि. पैसा आपवाना भावथी धर्म थाय
नहि. में पूर्वे पुण्य बांध्युं तेना फळमां सारो अवतारो मळ्यो–एम धर्मात्मा कदी मानता नथी; पण पुण्य अने तेनुं
फळ ए बंनेमां हुं नथी, हुं तो मारा स्वभावमां छुं–एम स्वभावद्रष्टिथी माने छे.
छद्मस्थ ज्ञानी हता. ज्यारे जगतमां घणा लायक जीवो आत्महित करवा माटे तैयार थया होय त्यारे संसारमांथी
कोई जीव पोताना उन्नत्तिक्रमने साधतो साधतो आगळ वधीने तेओने निमित्त थाय, एवो मेळ छे; छतां उपादान
अने निमित्त बंने स्वतंत्र छे.
व्यापता हता.
चैतन्यस्वरूप आत्माने पुण्यमां अने जडमां व्यापनारो माने छे. जेने अत्यारे ज चैतन्य स्वभावनी रुचि नथी पण
पुण्यनी रुचि छे ते भगवाननी वाणी सांभळीने पण आत्मानी स्वतंत्रता समजशे नहि. दिव्यध्वनिमांथी पण
आत्मानो शुद्धस्वभाव समजवो छे के बीजुं कांई? पण जेने स्वतंत्र आत्मानी रुचि नथी तेने पुण्यनी रुचि खसती
नथी; अहीं तो आचार्यदेव कहे छे के जे पुण्यभाव थाय तेमां आत्मा व्यापतो नथी पण जड व्यापे छे.