भाव वच्चे भेदज्ञान कराववा माटे, जे निमित्तना लक्षे विकार थयो ते निमित्तनी मुख्यता करीने विकारमां तेने ज
व्यापक कही दीधुं छे. विकारभाव आत्माना लक्षे थता नथी पण जडना लक्षे थाय छे माटे ते विकारभावमां जड ज
व्यापे छे.
मुख्यता केम न मनाय?
स्वभाव ज छे, तेथी तेमां पण निमित्तनी मुख्यता करवानुं प्रयोजन नथी; माटे गुरुथी ज्ञान थयुं एम मनाय नहि,
केमके ते मान्यतामां स्व–परनुं भेदज्ञान थतुं नथी पण स्व–परनी एकत्वबुद्धि थाय छे. मात्र विकारीभावो ते जीवनो
स्वभाव नथी एम बताववा माटे तेमां निमित्तनी मुख्यता करीने तेने जडना मानवामां आवे छे. वळी सम्यग्दर्शन
वगेरे शुद्धभावमां जडनुं लक्ष होतुं नथी तेथी जडनी मुख्यता करीने तेमां जड व्यापक छे एम कही शकाय नहि. पण
शुद्धस्वभावना लक्षे ज शुद्धभाव थाय छे तेथी शुद्धभावमां तो आत्मा पोते व्यापे छे. आवुं भेदविज्ञान करवुं ते ज
धर्म छे.
आत्माना परिपूर्ण स्वभावनी प्राप्ति होवाथी तेओ कदी विकारना कर्ता थता नथी. अज्ञानी बहारमां सुख माने छे.
पोते ज सुखस्वरूप छे ते भूलीने बहारमां झांवा नांखे छे. ज्ञानी जाणे छे के मारूं सुख पर पदार्थोमां क्यांय नथी, हुं
ज पोते सुखरूप छुं.
एटले के परद्रव्यपणे के विकारपणे आत्मा उपजतो नथी, पण परथी अने विकारथी भिन्न एवा पोताना
स्वभावभावपणे ज उपजे छे. आवी स्वभावद्रष्टिपूर्वक जे निर्मळ दशानो जन्म थयो ते ज आत्माने माटे कल्याणक
छे. जे जीवो आत्मानुं भान करे छे तेओ उपचारथी काळने मांगळिक कहे छे, पण खरेखर धर्मात्माने तो पोतामां
सदाय मांगळिक ज छे. शरीरना संयोग वियोगथी आत्मानी वास्तविक ओळखाण नथी.
सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो, क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रहो?
पुण्यनां फळमां मारुं सुख नथी, पुण्यना फळमां सुख मानवाथी मारूं साचुं आत्मसुख टळी जाय छे. आटलुं पण
समज तोय तारा मनुष्यपणानी सफळता छे. स्वभावनो भरोसो छोडीने बहारमां सुख मानी रह्यो छो तेथी तो तारूं
अंतरनुं सुख टळी जाय छे अने अज्ञानने लीधे क्षणे क्षणे भयंकर भावमरण करी रह्यो छे. तेथी आत्माने समजवा
माटे कह्युं छे, पण पुण्यना फळनो के आ जड शरीरनो महिमा बतावीने तेमां पकडाई जवा माटे कह्युं नथी.
ते बधा तीर्थंकरो ज थाय एम नथी; तीर्थंकरपणुं न होवा छतां आत्माना भानपूर्वक स्वरूप स्थिरता करीने दरेक जीव
मुक्ति पामी शके छे. पूर्वे पुण्य बांध्या तेना धणी धर्मात्मा नथी, ते पुण्यना फळमां जे संयोग आव्यो तेना धणी पण
धर्मात्मा नथी अने वर्तमानमां पुण्यना भाव थाय तेना धणी पण धर्मात्मा थाय नहि. विकार अने तेना फळनी
शरूआतमां हुं नथी, तेनी मध्यमां हुं नथी तेम ज तेना अंतमां पण हुं नथी, हुं तो मारी निर्मळ पर्यायना आदि–
मध्य–अंतमां छुं आवी अंतरद्रष्टि धर्मात्माने होय छे.