Atmadharma magazine - Ank 043
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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१४०ः आत्मधर्मः ४३
* दिव्यध्वनिदाता सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी *
(लेखकः श्री खीमचंद जेठालाल शाह)
“अहो! उपकार जिनवरनो, कुंदनो, ध्वनि दिव्यनो;
जिन–कुंद–ध्वनि आप्यां, अहो! ते गुरु कहाननो.”
चतुर्थ काळमां भरतक्षेत्रमां अने वर्तमानमां महाविदेह क्षेत्रमां वर्तता तीर्थंकरो आत्माने कांई हथेळीमां
लईने बतावता नथी तेओ पण दिव्यध्वनि द्वारा आत्मानुं स्वरूप समजावता हता ने समजावे छे. अलबत्त तेमणे
कषायनो सर्वथा क्षय करीने केवळज्ञान प्राप्त कर्युं होवाथी तेमनी वाणीमां अखंड परिपूर्णपणुं हतुं. पण वर्तमानमां
आ क्षेत्रे क्षायोपशमिक ज्ञान होवाथी वाणीमां क्रम पडे छे छतां ते द्वारा पण आत्मानुं अखंड परिपूर्णपणुं समजावी
शकाय छे. एवुं परिपूर्णपणुं पूज्य सद्गुरुदेवश्री समजावे छे. द्रष्टांत तरीकेः–तेओ एक वाक्य “तुं हवे निजानंदनो
अनुभव कर” एम कहे ने तेना उपर विवेचन करी केवळज्ञान खडुं करे छे. ते एवी रीते केः–
(१) ‘हवे ‘एम कहेतां अनादि काळथी जे करतो आव्यो छो तेवुं नहि पण कांईक जुदी ज जातनुं– अपूर्व
हवे कर.
(२) ‘तुं’ एम कहेतां समजावनार ने समजनार जुदा पडे छे. जगतमां एक ज पदार्थ नथी पण अनेक छे
एम तेना उपरथी सिद्ध थाय छे.
(३) अनेक पदार्थ होवा छतां ‘तुं’ एम कहेतां तुं बीजा बधाथी भिन्न छो तेथी स्वतंत्र अने परिपूर्ण छो.
(४) ‘तुं’ निजानंदनो अनुभव कर, एमां ‘तुं’ चेतन छो तेथी ‘अनुभवकर’ एम कहेवामां आव्युं छे
तेथी एम पण समजाय छे के बीजां केटलांय द्रव्यो एवां छे के जेने अनुभव होतो नथी. एटले के चेतन सिवाय
बीजां जड द्रव्यो पण छे, एम सिद्ध थयुं.
(प) ‘तुं निजानंदनो अनुभव कर’ एम कहेनार निजानंदना अनुभवी छे अर्थात् पोते स्वानुभवनी वात
करे छे अने सांभळनारने तेनो अनुभव हजु थयो नथी.
(६) ‘हवे निजानंदनो अनुभव कर’ एम कहेतां अत्यार सुधी कोई पर पदार्थनो अनुभव करतो हतो तेने
छोडीने ‘हवे निजानंदनो अनुभव कर’ एवुं सूचन छे.
(७) पर पदार्थनो अनुभव करतो हतो पण तेमां आनंद न हतो तेथी ते पर पदार्थ उपरनुं लक्ष छोडी तारा
आत्मा तरफ वळ तो निजानंदनो अनुभव थई शके तेम छे. तारो आनंद तारामां सदाकाळ बेहद भर्यो पडयो छे.
(८) हरख–शोकनो अनुभव करवानुं कह्युं नथी कारण के ते तो अनादि काळथी जीव करतो आवे छे तेथी ते
शीखववुं पडतुं नथी पण निजानंदनो अनुभव अपूर्व होवाथी ते शीखववुं पडे छे.
(९) हरख–शोकनो पर्याय टाळी शकाय तेवो क्षणिक छे तो ज तेने टाळवानुं कहेवायुं छे ने तेने टाळनारो
त्रिकाळ टकनार छे.
(१०) ‘अनुभव कर’ ए आज्ञार्थ वाचक छे, जे आज्ञाने समजीने तरत तेनो अमल करी शके एवाने तेम
ज जे पात्र थईने भावे नजीक थयो छे एवाने ए आज्ञार्थ वाचक वाक्य कहेवामां आव्युं छे.
(११) अनुभव पर्यायनो थई शके छे, द्रव्य–गुणनो नहि, तेथी पर्यायमां जे विकार थतो हतो तेने टाळीने
निर्विकारी पर्यायनो अनुभव करवानुं कहेवामां आव्युं छे, आस्रव–बंध हेय छे ने संवर–निर्जरा उपादेय छे.
(१२) अनुभव स्वयं करी शकाय छे, परनो अनुभव पोताने उपयोगी थई शकतो नथी.
(१३) अनुभव स्वाश्रये प्रगटे छे, पराश्रये नहि.
(१४) निजानंदनो अनुभव वधतां वधतां पूर्णताने पामे छे. ते केवळज्ञाननो अविनाभावी छे.
आम एक वाक्य उपर विचार लंबावीने पूज्य सद्गुरुदेव छ द्रव्यो, तेना गुण–पर्यायनुं स्वातंत्र्य, स्वपरनो
विवेक, नवतत्त्वनुं स्वरूप, विभावनो नाश ने स्वभावनी उत्पत्ति स्वभाव पूर्ण थतां केवळज्ञान–एम एकेक वाक्य
मां केवळज्ञाननो कंपो ऊभो करी द्ये छे.
तीर्थंकर भगवंतो केवळज्ञानने कारणे दिव्यध्वनि द्वारा परिपूर्ण स्वरूप समजावे छे. ज्यारे पूज्य सद्गुरुदेव
श्रुतज्ञानना दिव्यध्वनि द्वारा परिपूर्ण स्वरूप समजावे छे.
पूज्य महाराजश्रीने कुंदकुंद आचार्यना स्वरूपमां जोवानी विद्वत्