Atmadharma magazine - Ank 044
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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जेठः२४७३ः १प३ः
ज्ञानी अने अज्ञानी वच्चेनुं महान अंतर
पोतानी उपर कोई दुश्मन चडी आव्यो होय तेवा प्रसंगे दुश्मनने मारवानो भाव (अर्थात् विरोधिनी
हिंसानो भाव) ज्ञानी तथा अज्ञानी बंनेने थाय, ते वखते ते बंनेना अंतरंग अभिप्रायमां केटलुं मोटुं अंतर छे
तेनो ख्याल नीचेनी बाबतोथी आवी जशे.
(१) ज्ञानी एम माने छे के, आ दुश्मन आव्यो माटे मने हिंसानो भाव थयो–एम नथी, पण मारा
पुरुषार्थनी नबळाईने लीधे हिंसानो भाव थई आव्यो छे.
अज्ञानी एम माने छे के, आ दुश्मन आव्यो माटे ज मने हिंसानो भाव थई आव्यो, जो ते न आव्यो होत
तो न थात.
ज्ञानी स्वपर्यायनो दोष जाणे छे, अज्ञानी स्वपर्यायना दोषने न स्वीकारतां परनो दोष काढे छे. खरेखर
ज्ञानी कोई परने दुश्मन मानता नथी.
(२) ज्ञानी एम विचारे छे के–आ विरोधिनी हिंसानो भाव पण मारे करवा जेवो नथी. दुश्मननी हाजरी
होवा छतां, ए ज क्षणे जो पुरुषार्थनी ऊग्रता वडे वीतरागता थई शके तो मारे ते भाव छोडवा जेवो छे.
अज्ञानी एम विचारे छे के–दुश्मन आवीने हेरान करे तेवे वखते तो विरोधीनी हिंसानो भाव करवो ज
जोइए.
ज्ञानीने ते हिंसाभाव छोडवानी भावना छे, अज्ञानीने ते हिंसाभाव करवानी भावना छे. ज्ञानीने ते
भावनो अनादर अने खेद वर्ते छे, अज्ञानीने ते भावनो आदर अने होंश वर्ते छे.
(३) ज्ञानी एम माने छे के विरोधभाव थतां दुश्मन साथेनी लडाईमां हार के जीत थवी ते पुण्य–पापना
निमित्तथी थाय छे, पण मारा पुरुषार्थने लीधे हार–जीत थती नथी; अने लडाईमां शरीरनी क्रियानो कर्ता पोताने
मानता नथी.
अज्ञानी एम माने छे के–दुश्मन साथे लडाईमां हुं मारा पुरुषार्थ वडे जीतुं छुं अथवा ओछा पुरुषार्थने लीधे
हारूं छुं; अने लडाईमां शरीरनी क्रिया मारी शक्तिथी थाय छे.
ज्ञानीओ पोतानो पुरुषार्थ परमां मानता नथी एटले के पोताना पुरुषार्थथी परनां काम थाय एम मानता
नथी अने तेथी तेओ परनुं अभिमान करता नथी. अज्ञानी जीव पोताना पुरुषार्थथी परनां काम थाय एम माने छे
अने परनां अभिमान करे छे.
(४) ज्ञानीओ दुश्मन साथेनी हार–जीतने पोतानी मानता नथी. पण जेटले अंशे राग–द्वेष थया तेटले
अंश हार माने छे अने रागरहित स्वभावनी श्रद्धा ज्ञान टकावी राख्या तेटले अंशे जीत माने छे. रागने पोतानो
मानवो ते ज मोटी हार छे; बहारनी हारजीतथी पोताने नुकशान–लाभ मानता नथी.
अज्ञानी जीव दुश्मन साथेनी हार–जीतने पोतानी माने छे, पण राग–द्वेष थाय छे ते ज पोतानी हार छे
तथा ते रागने पोतानुं कर्तव्य माने छे ते मोटी हार छे–एने जाणतो नथी. पण बहारनी हार–जीतथी पोताने
नुकशान–लाभ माने छे.
ज्ञानी पोताना पर्यायथी ज लाभ–नुकशान माने छे, पण परथी लाभ–नुकशान मानता नथी; अज्ञानी
पोतानी पर्यायना लाभ–नुकशानने जाणतो नथी अने परथी लाभ नुकशान माने छे. ज्ञानी पोताना पर्यायना
विकारने दूर करवा मागे छे, अज्ञानी बहारना संयोगने दूर करवा मागे छे.
आ रीते ज्ञानी तथा अज्ञानी बंनेने विरोधिनी हिंसानो भाव समान होवा छतां, अने बाह्य क्रिया पण
समान होवा छतां, ज्ञानीने ते वखते अल्प पाप अने घणी निर्जरा थाय छे अने अज्ञानीने अनंतु पाप थाय छे.
ज्ञानीने ते वखते पण साचा अभिप्रायने लीधे संसार घटतो जाय छे, अज्ञानीने ऊंधा अभिप्रायने लीधे अनंत
संसार वधे छे. सम्यग्दर्शन थतां जीवनो अभिप्राय फरी जाय छे, ते कदी विकार भावोनी भावना करतो नथी अने
परवस्तुनो कर्ता पोताने मानतो नथी. आवा सम्यक् अभिप्रायवाळा धर्मात्माने व्रत, तप, त्याग पडिमा न होवा
छतां साचा अभिप्रायना जोरे तेणे संसारना मूळने छेदी नाख्युं छे. ऊंधा अभिप्रायनुं जे अनंतु पाप छे ते पाप
शुभभाव वडे टळी शकतुं नथी पण साची समजण वडे ज टळी शके छे; माटे साचो अभिप्राय अर्थात् सम्यग्दर्शन ते
ज प्रथम अपूर्व धर्म छे.
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