ः १प४ः आत्मधर्मः ४४
अहिंसा अने हिंसा
पुरुषार्थ सिद्धि उपाय गाथा ४२ थी ९०ना आधारे
ज्यांंसुधी हिंसा–अहिंसाना वास्तविक स्वरूपने जीव न जाणे त्यांसुधी ते कदी पण खरी अहिंसानो
उपासक थई शके ज नहि अने हिंसा टाळी शके नहि. घणा लोको बहारथी अहिंसा के हिंसा माने छे, परंतु
अहिंसा के हिंसा बहारमां नथी पण आत्माना भावमां ज छे. वळी देश अने काळना फेरफार अनुसार अहिंसाना
स्वरूपमां पण फेरफार थाय छे–एम घणा लोको माने छे, परंतु ते सत्य नथी केम के अहिंसा कोई देश के काळने
आधारे नथी पण आत्माना भावने ज आधारे होवाथी तेनुं स्वरूप सदाय एकसरखुं ज छे. महासमर्थ गणधरतूल्य
श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे अहिंसा तथा हिंसानुं स्वरूप घणी ज अलौकिक रीते स्पष्टपणे पुरुषार्थसिद्धि उपाय शास्त्रमां
वर्णव्युं छे, तेमांथी नीचेना विषयो अहीं आपवामां आवे छे–
(१) पोताना शुद्धोपयोगरूप परिणामनो घात ते ज खरी हिंसा छे. पोतामां रागादि भावोनी उत्पत्ति थवी
ते हिंसा छे अने रागादिनी उत्पत्ति न थवी ते अहिंसा छे. सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या सिवाय कोई पण जीव साचो
अहिंसक थई शके ज नहि. पोताना भाव प्राणोनो घात ते हिंसा छे. (गाथा–४२ थी ४४)
(२) पर जीवोने पीडा थवा छतां जो जीवने कषाय भाव न होय तो ते अहिंसा छे, पर जीवोने पीडा न
थवा छतां जो जीवने कषाय भाव होय तो ते हिंसा ज छे. पोताना कषाय भावथी ज पोताना चैतन्य प्राणनो घात
थाय छे अने ते ज हिंसा छे, पर जीवोना कारणे आ जीवने जरा पण हिंसा नथी. (गा. ४प थी ४९)
(३) शूष्क जीवनुं लक्षण (गा. प०)
(४) बाह्य हिंसा न होवा छतां हिंसक, बाह्य हिंसा होवा छतां अहिंसक, बाह्य हिंसा थोडी देखाय छतां
अंतरमां घणी हिंसा, बाह्य हिंसा घणी देखाय छतां अंतरमां थोडी हिंसा, बे पुरुषोने बाह्य हिंसा समान होवा छतां
अंतर हिंसामां फेर–इत्यादि प्रकारो द्वारा हिंसा–अहिंसाना स्वरूपनुं स्पष्टीकरण. (गा. प१ थी प३)
(प) तीव्र हिंसाना स्थानोनुं वर्णन अने ते छोडवानो उपदेश.
१. मदिरा सेवनमां हिंसा (गा. ६१ थी ६३)
२. मांस भक्षणमां हिंसा (गा. ६प थी ६८)
३. मध भक्षणमां हिंसा (गा. ६९ थी ७०)
(६) मध, मांस, मदिरा वगेरेनो खोराक जे जीवने होय ते जीव जिनधर्मनी देशना सांभळवाने पण लायक
नथी. सम्यग्दर्शन प्रगट करवा मागता जिज्ञासु जीवने पण मांस, मध वगेरेनो खोराक होय ज नहि, तो पछी
सम्यग्द्रष्टिओने ते न ज होय–ए देखीतुं छे. (गा. ७४ थी ७प)
(७) हिंसा–अहिंसानुं माप बाह्य सामग्री उपरथी थई शके नहि; धर्मना हेतुथी कोई पण जीवने मारी
नाखवो, अथवा दुःख मुक्त करवाना हेतुथी दुःखी जीवने मारी नाखवो, अथवा क्षुधातूर प्राणीने मांसनुं दान करवुं–
एवा प्रकारना बधा भावो तीव्र हिंसा ज छे. (गा. ७८ थी ८९)
(८) परम अहिंसामय जिनमतमां प्ररूपेल हिंसा–अहिंसानुं स्वरूप जे जीव जाणी गयो छे ते जीव कदापि
हिंसामय मतोमां श्रद्धा करतो नथी. (गा. ९०)
हवे आ गाथाओना अर्थ भावार्थ सहित आपवामां आवे छे.
हिंसानुं स्वरूप गाथा–४२
अर्थः– आत्माना शुद्धोपयोगरूप परिणामोनो घात थतो होवाथी आ (हिंसा, जुठुं, चोरी, मैथुन, परिग्रह)
बधा हिंसा ज छे; असत्य वचन वगेरे भेदो मात्र शिष्योने समजाववा माटे उदाहरणरूप कहेल छे.
भावार्थः– जुठुं, चोरी वगेरे सर्वे पाप भावो हिंसामां ज गर्भित छे केम के ते बधामां आत्माना
शुद्धपरिणामनो घात थाय छे. आचार्यदेवे आ गाथामां ‘आत्माना शुद्धोपयोगनो जे घात करे ते हिंसा छे’ एम
हिंसानुं स्वरूप टूंकामां जणावी दीधुं छे.
एक जीव बीजा जीवने मारी शकतो नथी तेमज तेनुं रक्षण करी शकतो नथी; अने पर जीवोनुं भलुं–बूरुं करी
शकतो नथी. पण तेवा भावथी जीव पोतानी ज हिंसा करे छे. पोताना शुद्धस्वरूपनुं अभान ते सौथी महान हिंसा छे.