जेठः २४७३ः १पपः
गाथा–४३
अर्थः– निश्चयथी कषाय सहित योगथी जे द्रव्य अने भावरूप बे प्रकारना प्राणोनो घात करवो ते खरेखर
हिंसा छे.
भावार्थः– जीवना परिणाममां जे कषाय प्रगट थयो तेनाथी प्रथम तो पोताना शुद्धोपयोगरूप
भावप्राणनो घात थयो; पोताना भावप्राणना घातथी पहेलां पोतानी हिंसा तो थई ज गई, त्यार पछी बीजा
जीवनुं मरण वगेरे थाय के न पण थाय. अर्थात् द्रव्य–हिंसा न थाय तो पण कषाय परिणाम वडे पोतानी भाव
हिंसा तो थई ज गई छे.
अहिंसा तथा हिंसानुं लक्षण
गाथा–४४
अर्थः– जीवना परिणाममां रागादिक भावोनुं प्रगट न थवुं ते ज खरेखर अहिंसा छे अने जीवना
परिणाममां रागादि भावोनी उत्पत्ति थवी ते ज हिंसा छे–आ जिनसिद्धांतनुं टूंकु रहस्य छे
.भावार्थः– परम अहिंसा धर्मनुं प्रतिपादन करनार जैनधर्मनुं आ ज रहस्य छे के–रागादि भावोथी
पोताना शुद्धोपयोगरूप प्राणनो घात थाय छे तेथी रागादिक भावोनो अभाव ते ज अहिंसा छे अने ते रागादिक
भावोनो सद्भाव ते ज हिंसा छे.
हुं पर जीवोने मारी शकुं तथा हुं पर जीवोने बचावी शकुं–एवो मिथ्या अभिप्राय होय ते जीव कदी पण
अहिंसक होय ज नहि, पण हिंसक ज होय. केम के जेना अभिप्रायमां पर जीवोने हुं मारूं अने पर जीवोने हुं जीवाडुं–
एवी बुद्धि छे तेने अनंत पर जीवो प्रत्ये राग अने द्वेष होय ज, अने तेथी ते जीव हिंसक ज छे. परना कर्तृत्वरूप
मिथ्या अभिप्राय अने अहिंसकपणुं ए बंने कदी साथे होई ज न शके. मिथ्या–अभिप्राय टळी गया पछी क्रमे क्रमे
जीवने कषायभाव अवश्य टळता जाय छे. अने ज्यां पोताना भावमां कषाय न होय त्यां बीजा जीवोने मारवानो के
दुःख देवानो भाव पण होय ज नहि. आथी मिथ्यात्व ए ज हिंसानुं मूळ छे अने सम्यक्त्व ए ज अहिंसानुं मूळ छे.
प२ जीवोने पीडन थवा छतां अहिंसा
गाथा–४प
अर्थः– निश्चयथी योग्य आचरणवाळा संतपुरुषने रागादिक भावोना अभावमां मात्र पर जीवोना प्राण
पीडनथी हिंसा कदी पण थती नथी.
भावार्थः– कोई मुनिजन के धर्मात्मा पुरुष सावधानीथी गमनादि करता होवा छतां, तेना शरीरना निमित्ते
कोई जीवोने पीडा थई जाय तो पण ते पुरुषने हिंसा–दूषण कदापि लागतुं नथी केम के तेना परिणाम कषाययुक्त
नथी; अने हिंसानुं लक्षण तो कषाय सहित योगथी प्राण पीडन थवुं–ते छे. जीवना भावनी अपेक्षा राख्या वगर,
जो मात्र पर जीवोना प्राणपीडनने ज हिंसा गणवामां आवशे तो अतिव्याप्ति दूषण आवी पडशे.
पर जीवोने पीडा न थवा छतां हिंसा
गाथा–४६
अर्थः– जीव रागादिक भावोने वश थईने प्रवर्ततां अयत्नाचाररूप प्रमाद करे ते वखते पर जीव मरे के न
मरे परंतु तेने हिंसा तो चोक्कस थाय ज छे.
भावार्थः– जे प्रमादी जीव कषायोने वशीभूत थईने गमनादि क्रिया यत्नाचारपूर्वक नथी करतो ते अवश्य
हिंसा दोषनो पात्र थाय छे; त्यां पर जीव मरे के न मरे तेनी साथे कांई संबंध नथी. हिंसा तो जीवना कषाय भावथी
ज थाय छे.
कोई पण जीवोना प्राणोनो घात थया वगर हिंसा केम थई?–एवा प्रश्ननुं समाधान करे छे–
गाथा–४७
अर्थः– कषायभावो सहित जीव प्रथम तो पोतानी मेळे चैतन्य प्राणनो (अर्थात् भावप्राणनो) घात करे
छे,–ए ज हिंसा छे; पछी त्यां अन्य जीवोनी हिंसा होय के न होय.
भावार्थः– ‘हिंसा’ शब्दनो अर्थ ‘घात करवुं’ एवो थाय छे. घात बे प्रकारना छे–एक आत्मानो घात अने
बीजो परनो घात. जे समये जीवमां कषाय भावनी उत्पत्ति थाय छे ते ज समये आत्मघात तो थई ज जाय छे–अने
आत्मघात ते ज हिंसा छे. त्यां अन्य जीवो तेना आयुष्य प्रमाणे जीवे के मरे, तेनुं जीवन–मरण तेना आयुष्यने
आधीन छे, परंतु आत्मघात रूप हिंसा तो कषायभाव थतां ज थई जाय छे. ‘परनो घात’ ए उपचार कथन छे,
केमके शरीर अने जीवनो वियोग थाय तेमां बेमांथी एकेयनो नाश थतो नथी तेथी ते खरेखर घात नथी; पोतानी
पर्यायमां विकार करीने आत्मा पोते पोताना शुद्धोपयोगने हणे छे ते ज साचो घात छे. पर जीवोने दुःख देवाना
भाव करे त्यां खरे–