Atmadharma magazine - Ank 044
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १प६ः आत्मधर्मः ४४
खर परनो घात कर्यो नथी पण कषाय परिणाम वडे
पोते पोताना शुद्धोपयोगनो ज घात कर्यो छे; तेवी ज
रीते परने दुःख न देवानो भाव करे त्यां खरेखर ते
परना कल्याण माटे नथी पण पोताना ज आत्मकल्याण
माटे छे, पर जीवोनुं भलुं–बूरुं तो कोई करी शकतो
नथी.
अमुक संयोगोने प्रतिकूळ मानीने जे जीवो
दुःखी थाय छे ते जीवो तेमनी पोतानी शरीर उपरनी
ममताने कारणे दुःखी थाय छे, परंतु अनुकूळ के
प्रतिकूळ कल्पेला संयोग सुख–दुःखनुं कारण नथी.
खरी रीते शरीरादि पर द्रव्योनी कोई पण अवस्थाने
अनुकूळ के प्रतिकूळ मानवी ते पण भूल छे–वासना
छे. शरीरादि कोई पण पर द्रव्योनी अवस्था जीवने
अनुकूळ के प्रतिकूळ छे ज नहि, मात्र जीव पोतानी
जुठ्ठी कल्पनाथी तेवी मान्यता करे छे. पोताना साचा
आत्मस्वरूपनुं अभान तथा राग–द्वेष ए ज खरेखर
जीवने प्रतिकूळ छे अने ते ज दुःखरूप छे तथा ते ज
हिंसा छे. अने पोताना आत्मस्वभावनी साची श्रद्धा
तथा वीतराग भाव ए ज जीवने अनुकूळ छे, अने ते
ज सुखरूप छे तथा ते ज अहिंसा छे.
गाथा–४९
अर्थः– खरेखर कोई पर वस्तुना कारणे
आत्माने जरा पण हिंसा लागती नथी; तो पण पोताना
परिणामोनी निर्मळताने माटे हिंसाना स्थानोथी पोताना
भावनी निवृत्ति करवी योग्य छे.
भावार्थः– रागादिक कषाय भावो ते ज हिंसा
छे, पर वस्तु साथे तेनो कांई संबंध नथी. परंतु
रागादिक परिणाम परिग्रहादिकना अवलंबनथी थाय छे
तेथी परिणामोनी विशुद्धता अर्थे परिग्रहादि तरफनुं
वलण छोडवुं जोईए.
गाथा–प०
अर्थः– जे जीव निश्चयना स्वरूपने जाणतो नथी
पण ‘हुं निश्चयने जाणुं छुं’ एवुं अभिमान करे छे ते
जीव शुद्धभाव अने शुभभाव बंनेथी भ्रष्ट थईने अशुभ
परिणामरूप प्रवर्ते छे. अथवा जे जीव निश्चयनयना
स्वरूपने जाणतो नथी अने बाह्य परिग्रहना त्यागने ज
खरेखर मोक्षमार्ग माने छे ते मूर्ख जीव शुद्धोपयोगरूप
आत्मानी दयाने नष्ट करे छे.
भावार्थः– एवो ज नियम छे के जेटला
प्रमाणमां जीवने अंतरंग हिंसा भाव छूटी जाय तेटला
प्रमाणमां हिंसानी बाह्य प्रवृत्तिओ प्रत्येनुं वलण पण
स्वयमेव छूटी जाय छे. जे पुरुष आम जाणतो नथी अने
कहे छे के–
“मारा अंतरंग परिणाम तो स्वच्छ छे
तेथी बाह्य परिग्रह राखवाथी के भ्रष्ट आचरण
करवाथी मने दोष लागतो नथी” –एम कहेनार
पुरुष मिथ्याद्रष्टि छे जो कषायभाव टळी गयो
होय तो तेने कषायना निमित्तोनुं अवलंबन होय
ज नहि.
गाथा–प१
अर्थः– निश्चयथी कोई जीव बाह्य हिंसा न करवा
छतां हिंसाना फळने भोगववानुं पात्र थाय छे अने
अन्य कोई जीवथी बाह्यहिंसानुं कार्य थवा छतां पण
हिंसाना फळने भोगववानुं पात्र थतो नथी.
भावार्थः– बाह्यमां हिंसानुं कार्य न थाय
तोपण जे जीवने हिंसा–परिणाम थाय ते जीव
हिंसाना फळने भोगवशे, अने कोई ठेकाणे बाह्यमां
तो हिंसानुं कार्य थयुं पण जो जीवना परिणाममां
हिंसाना भाव न थाय तो ते जीव हिंसा दोषने पात्र
कदापि थतो नथी.
गाथा–प२
अर्थः– कोई जीवने तो बाह्य हिंसा थोडी होय
पण भावमां तीव्र कषाय होय तो ते उदय काळमां घणा
फळने आपे छे, अने कोई जीवने बाह्य हिंसा घणी होय
छतां भावमां तीव्र कषाय न होय तो ते उदयकाळमां घणुं
थोडुं फळ आपे छे.
भावार्थः– हिंसा बाह्यना आधारे नथी पण
अंतरंग कषाय ते ज हिंसा छे; तेथी कोई पुरुषने
बाह्यहिंसा तो थोडी देखाती होय परंतु पोताना
परिणामोमां हिंसाभावथी घणो लिप्त होय तो तेने तीव्र
कर्मबंध थशे अने कोई पुरुषने बाह्य हिंसा तो अधिक
देखाय छे परंतु अंतरंगमां हिंसाना अधिक भाव नथी
तो तेने मंद कर्मबंध थशे.
गाथा–प३
अर्थः– बे पुरुषोए साथे मळीने करेली
बाह्यहिंसा पण उदयकाळमां विचित्रताने प्राप्त थाय छे
अर्थात् एकने तो ते तीव्रफळ आपे छे अने बीजाने
अल्प फळ आपे छे.
भावार्थः– बे पुरुषो मळीने कोई हिंसा करे छतां
परिणाममां फेर पडे छे. जेना परिणाम तीव्र कषायरूप
होय तेने तीव्र हिंसा छे अने ते ज वखते जेना
परिणाम मंद कषायरूप होय तेने अल्पहिंसा छे.
आथी एम निश्चय समजवुं के बाह्य क्रियाओनुं फळ
आत्माने