Atmadharma magazine - Ank 044
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४७३ः १प७ः
नथी पण पोताना परिणामनुं ज फळ आत्माने छे. बाह्य क्रियाओ तो आत्माथी भिन्न होवाथी आत्मा तेनो कर्ता
पण नथी अने भोक्ता पण नथी.
हिंसानुं तथा अहिंसानुं स्वरूप समजाव्या पछी तीव्र हिंसाना स्थानोनो त्याग कराववा माटे
आचार्यप्रभु तेनुं वर्णन करे छे–
गाथा–६१
अर्थः– हिंसानो त्याग करवानी कामनावाळा पुरुषोए प्रथम ज पुरुषार्थद्वारा शराब, मांस, मध अने पांच
उदुम्बर फळोनो त्याग करवो जोईए.
गाथा– ६२–६३
अर्थः– मदिरा अर्थात् शराब मनने मोहित थवामां निमित्त छे अने मोहितचित्तपुरुष धर्मने भूली जाय छे,
तथा धर्मने भूली गयेलो जीव निःशंकपणे हिंसामय आचरण करे छे. वळी मदिरा घणा रसमां उत्पन्न थयेला जीवोनुं
उत्पत्तिस्थान (योनि) कहेवाय छे, तेथी जे मदिरानुं सेवन करे छे तेने ते जीवोनी हिंसा अवश्य लागे छे.
गाथा– ६प–६६–६७–६८
अर्थः– केम के प्राणीओना घात वगर मांसनी उत्पत्ति थई शकती नथी तेथी मांस भक्षी पुरुषने चोक्कसपणे
हिंसा लागे छे. स्वयमेव मरी गयेलां भेंस वगेरेनुं मांस होय छे तेमां पण ते जातिना जीवो रहेला होय छे, तेनी
हिंसा थाय छे. मरेला जीवना मांसमां पण ते जीवनी जातिना अनंत जीवो रहेला होय छे तेथी तेना भक्षणमां अनंत
जीवोनी हिंसा थाय छे.
पाकया वगरना, पाकी गयेला तेमज पाकता होय तेवा मांसमां पण ते ते जातिना संमूर्छन जीवोनी निरंतर
उत्पत्ति थया करे छे. मांसनी सर्व अवस्थाओमां ते ते जातना नवा नवा अनंत जीवोनी उत्पत्ति थया ज करे छे.
एटले के मांस कदापि अचेतन थई ज शकतुं नथी. जे जीव काचा के पाका मांसनुं भक्षण करे छे अथवा तो तेनो स्पर्श
पण करे छे ते जीव निरंतर एकत्रित थएला अनेक जातिना जीवोना समूहनी हिंसा करे छे.
गाथा–६९–७०
आ जगतमां मधनुं एक बिंदु पण माखीओनी हिंसाथी भरेलुं छे तेथी जे मुर्ख बुद्धि पुरुष मधनुं भक्षण करे
छे ते अत्यंत हिंसक छे. मधपूडामांथी कपटवडे अथवा तो माखीओ द्वारा स्वयमेव छोडवामां आवेल मधनुं ग्रहण
करवामां पण तेना आश्रयभूत जीवोना घातथी हिंसा थाय छे.
मद्य, मांस, मदिरा वगेरे पदार्थो प्रत्येनो राग ते अनंतानुबंधी हिंसा छे, जेना एवा पदार्थो ग्रहण करवानी
लागणी होय ते मिथ्याद्रष्टि ज होय. मद्य, मांस, मदिरा जेवी वस्तुओनो स्पर्श करवामां पण महापाप छे.
गाथा–७४–७प
अर्थः– दुःखदायक, दुस्तर अने पापोना स्थानभूत ए आठ पदार्थोनो परित्याग करीने निर्मळबुद्धिवाळो जीव
जिन धर्मनी देशना सांभळवाने पात्र थाय छे.
भावार्थः– मद्य, मांस, मदिरा अने पांच उदुम्बर फळो प्रत्येनो राग महापाप छे, अने जेने तेवो तीव्र राग
भाव विद्यमान होय ते जीव जिनधर्मनी देशना सांभळवाने लायक नथी; तेथी तेनो त्याग करवाथी ज जीव सत्धर्म
उपदेश सांभळवाने पात्र थाय छे.
आ संबंधमां पंचाध्यायी शास्त्रना बीजा अध्यायनी ७२४–७२प–७२६ गाथाओमां नीचे प्रमाणे कह्युं छे–
(गा. ७२४)
अर्थः– ए आठ मूळगुण (मद्यादिकनो त्याग) स्वभावथी अथवा कुळपरंपराथी गृहस्थने प्राप्त होय छे,
अने ए स्पष्ट छे के ए मूळगुणो वगर जीवने कोई प्रकारना व्रत के सम्यक्त्व थई शकता नथी.
(गा. ७२प)
अर्थः– ए मूळगुणो वगर जीव नाम मात्रथी पण श्रावक थई शकतो नथी, तो पछी पाक्षिक, गूढ, नैष्ठिक
अथवा साधक श्रावक तो कई रीते होई शके?
(गा. ७२६)
अर्थः– मद्य, मांस, मधु अने पांच उदुम्बर फळोनो त्याग करवावाळा गृहस्थ नामथी श्रावक कहेवाय छे,
परंतु तेनुं सेवन करवावाळा गृहस्थ नामथी पण श्रावक कहेवाता नथी.
वळी पूज्यपाद श्रावकाचारनी १३ मी गाथामां कह्युं छे के–
अर्थः– मद्य, मांस, अने मध ए त्रण ‘म’ कार अने पांच उदुम्बर फळोनो मरण पर्यंत त्याग करवो ते
गृहस्थना आठ मूळगुण छे. जे जीव संपूर्ण अहिंसा स्वरूप वीतराग धर्मनुं श्रवण करीने पण स्थावर जीवोनी
हिंसानो परित्याग करवा असमर्थ होय ते पण त्रण जीवोनी हिंसा तो अवश्य छोडो.