Atmadharma magazine - Ank 044
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १प८ः आत्मधर्मः ४४
गाथा–७८
अर्थः– मोक्षना कारणभूत परम अहिंसारूपी रसायण प्राप्त थया पछी, कोई अज्ञानी जीवोना असंगत
वर्तावने देखीने धर्मात्मापुरुषोए व्याकुळ थवुं योग्य नथी.
भावार्थः– कोई जीवने हिंसा करवा छतां बाह्यमां अनुकूळ सामग्री देखीने अने पोते अहिंसा धर्मनुं पालन
करतो होवा छतां पोताने प्रतिकूळ सामग्री देखीने अथवा तो मिथ्याद्रष्टिओने हिंसामां धर्म मनावता तथा ते
मान्यताने पुष्ट करता देखीने धर्मात्मा पुरुषोए अहिंसामय जिनधर्मथी (आत्म स्वरूपना श्रद्धा ज्ञान–चारित्रथी)
चलायमान थवुं योग्य नथी.
ए ध्यान राखवुं के वर्तमानमां हिंसक भाव करता जीवने कदाच अनुकूळ सामग्री होय तो, ते तेना वर्तमान
हिंसा भावनुं फळ नथी. हिंसाभावना फळमां तो ते पोते वर्तमानमां ज तीव्र आकुळतानुं दुःख वेदी रह्यो छे तेना
शुद्धोपयोगनो घात थाय छे, तथा तेना बाह्य फळ तरीके भविष्यमां नरकादि दुर्गतिमां जशे. वर्तमान जे अनुकूळता
देखाय छे ते पूर्व पुण्यनुं फळ छे. तेवी ज रीते कोई अहिंसक धर्मात्माने कदाच वर्तमानमां प्रतिकूळ संयोग देखाय तो
तेनुं कारण वर्तमान अहिंसाभाव नथी पण पूर्वना अशुभ कर्मनो उदय छे. वर्तमान जे शुद्ध अहिंसाभाव छे तेना
फळरूपे तो ते ज वखते अनाकुळतारूप सुखनुं वेदन छे अने शुद्धोपयोगनी वृद्धि थाय छे तथा तेना फळमां मोक्षनी
प्राप्ति छे अने ते शुद्धभाव साथे अपूर्णदशामां जे शुभभावरूप अहिंसा होय छे तेनुं फळ स्वर्ग छे. माटे बाह्य
सामग्री उपरथी हिंसा अहिंसानुं माप बिलकुल थई शके नहिं, पण जीवना पोताना भाव उपरथी ज तेनुं माप थाय
छे. तेनुं फळ पण ते ज वखते जीवने पोताना भावमां वेदाय छे.
गाथा–७९
अर्थः– भगवत्–धर्म अर्थात् ज्ञान सहित धर्म सूक्ष्म छे; ‘धर्मना हेतुथी हिंसा करवामां दोष नथी. एम
धर्ममूढता वडे भ्रमरूप हृदय सहित कदी पण शरीरधारी जीवनी हिंसा करवी योग्य नथी.
भावार्थः– ज्यां हिंसाबुद्धि छे त्यां धर्म कदी पण होतो नथी.
गाथा–८२
अर्थः– ‘घणा प्राणीओना घातवडे उत्पन्न थयेला भोजन एक जीवना घातथी उत्पन्न थयेलुं भोजन सारूं
छे’ एवा विचारथी कदी पण पाडा वगेरे मोटा जीवोनी हिंसा करवी जोईए नहि.
भावार्थः– ‘अन्न वगेरेना आहारमां अनेक जीवो मरे छे तेथी तेने बदले एक मोटा जीवने मारीने भोजन
करी लेवुं ठीक छे’–एवो कुतर्क करवो ते पण अज्ञानता ज छे; केम के हिंसा कषायपूर्वक प्राणघातथी थाय छे,
एकेन्द्रियनी अपेक्षाए पंचेन्द्रिय जीवने द्रव्यप्राण तथा भावप्राण वधारे होय छे तथा पंचेन्द्रिय जीवनो घात करवानो
भाव ते घणो तीव्र कषाय छे, तेथी तेमां तीव्र हिंसा पाप छे, एकेन्द्रिय जीवना घात करतां बेईन्द्रिय जीवने घातवाना
भावमां असंख्यातगणुं पाप छे, तो पछी पंचेन्द्रिय जीवने घातवानो जे भाव तेना पापनी तो वात ज शुं करवी?
गाथा–८३
अर्थः– “आ एक ज जीवने मारवाथी घणा जीवोनी रक्षा थाय छे”–एम मानीने पण हिंसक जीवोनी हिंसा
कदी करवी न जोईए.
भावार्थः– कोई जीवो ‘सिंह, सर्प, वींछी वगेरे हिंसक प्राणीओने मारी नाखवा जोईए’ एम माने छे, ते
अज्ञानी ज छे. केमके जे जीव हिंसाभाव करे छे ते पोते अशुभ बंधनो भागीदार थाय छे, तो पछी आपणे तेने
मारवाना भाव करीने पापनुं उपार्जन शा माटे करवुं?
कोई जीव पर जीवने तो मारी शकतो नथी, पण पर जीवोने मारी नाखवानो भाव मिथ्यात्व तथा अनंत
संसारना कारणरूप कषायनो पोषक होईने जीवने पोताने ज नुकशान करे छे. कोई पण जीव मारी नाखवा जेवो छे
एवी बुद्धि ते संकल्पी हिंसा छे, अने ते हिंसाभाव मिथ्याद्रष्टिने ज होय छे, ते भावथी पोतानी ज महाहिंसा थाय
छे. माटे हिंसक जीवोने पण मारी नाखवानो भाव छोडी देवो जोईए.
गाथा–८४
अर्थः– ‘घणा जीवोनो घात करनार आ जीव जो जीवतो रहेशे तो अधिक पाप बांधशे’ एवा प्रकारे दया
करीने पण हिंसक जीवने हणवो न जोईए.
गाथा–८प
अर्थः– वळी, ‘अनेक दुःखोथी पीडित थई रहेला जीवने मारी नाखवाथी ते जल्दी दुःखथी मुक्त थई जशे’
एवा प्रकारनी वासनारूपी तलवार अंगीकार करीने दुःखी जीवने पण कदी मारवो न जोईए.