Atmadharma magazine - Ank 044
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४७३ः १प९ः
भावार्थः– दुःखी जीवने मारी नाखवाथी ते दुःखमुक्त थई जशे–ए मान्यता नास्तिकनी छे. शरीरनो त्याग
करवाथी, कांई जीव दुःखथी छूटी जतो नथी, केम के दुःख तो पोताना कषायभावनुं छे. तेथी दुःखी जीवने पण मारी
नाखवानो भाव ते महान अज्ञान अने हिंसा छे. जीवने सुख तो साची समजण पूर्वक सत्य धर्मना आराधनथी ज थाय
छे. जे जीव दुःखी थई रह्यो छे ते तेना पोताना अज्ञान अने कषाय भावथी ज थई रह्यो छे, तेथी जो ते पोतानुं अज्ञान
अने कषाय टाळे तो ज तेनुं दुःख टळे. एटले सुखनो उपाय साची समजण अने वीतराग भाव छे.
गाथा–८९
अर्थः– भोजन माटे समीप आवेला क्षुधातूरने देखीने तेने तुरत पोताना शरीरना मांसनुं दान आपवा माटे
पोतानो पण घात करवा योग्य नथी.
भावार्थः– कोई मांसभक्षी जीव भोजननी याचना करे तो तेने मांसनुं दान देवुं योग्य नथी; मांसादि वस्तुओनुं
दान शास्त्रथी अने धर्मथी विरुद्ध छे, अमुक राजाए पोताना शरीरनुं मांस कापीने पण अमुक पक्षीने खवरावीने जीवाडयुं–
एम कहीने ते राजाना वखाण करवा ते धर्ममूढता ज छे. मांसाहारनुं पोषण के मांसनुं दान ते महापाप छे.
गाथा–९०
सम्यग्ज्ञानना भेदोने जाणवामां (अर्थात् नयभंगोने जाणवामां) प्रवीण एवा श्रीगुरुओनी
उपासनावडे जिन मतना रहस्यने जाणनार, निर्मळ बुद्धिधारी अने अहिंसा स्वरूप धर्मने जाणीने तेने अंगीकार करनार
भव्यात्माओमां एवो कोण होय के जे पूर्वे कहेलां हिंसकमतोथी मूढता पामे?
भावार्थः– जे पुरुष परम अहिंसामय जिनधर्मने जाणी गयो छे ते कुतर्कियोना हिंसामय मिथ्यामतोमां कोई काळे
पण श्रद्धा करतो नथी.
हिंसा अहिंसानुं साचुं स्वरूप जाण्या वगर कोई पण जीव कदी अंशे पण अहिंसक थई शके नहि. परंतु उलटो
पोताने अहिंसावादी मानीने मिथ्यात्वभावरूप महा पापने पोषण आपे. माटे आत्मार्थी जीवोए हिंसा–अहिंसानुं साचुं
स्वरूप जाणीने हिंसामय भावोने छोडवा जोईए.
भैया भगवतीदासजी कृत
उपादान–निमित्त संवाद
पर प. पू. श्री कानजी स्वामीना प्रवचनो
(३९ दोहा सुधीना प्रवचनो अंक २प–३९–४०–४२मां छपाया छे)
(अहीं जीवनी मुक्ति थाय ए ज प्रयोजन होवाथी मुख्यपणे जीवना धर्म उपर ज उपादान–निमित्तनुं
स्वरूप उतार्युं छे. परंतु ते मुजब ज जीवनो अधर्मभाव पण जीव पोते पोताना उपादाननी ज योग्यताथी करे छे
अने जगतनी बधी जड वस्तुओनी क्रिया पण ते ते जड वस्तुना उपादानथी थाय छे, शरीरनुं हलन चलन, शब्दो
बोलवा के लखावा, ए बधुंय परमाणुना उपादानथी ज थाय छे, निमित्त तेमां कांई ज करतुं नथी–एम सर्वत्र
समजवुं.)
हवे, आ बधी वात स्वीकारीने निमित्त पोतानो पराजय कबुले छे.
तब निमित्त हार्यो तहां, अब नहि जोर बसाय;
उपादान शिव लोक में, पहुंच्यो कर्म खपाय. ४०.
अर्थः– त्यारे निमित्त हारी गयुं, हवे ते कांई जोर करतुं नथी. अने उपादान कर्मनो क्षय करीने शिवलोकमां
(सिद्धपदमां) पहोंच्युं.
आ उपादान–निमित्तना संवाद उपरथी अनेक प्रकारे आत्माना स्वतंत्र स्वरूपनी प्रतीति करीने उपादान
द्रष्टिवाळो जीव पोतानी सहज शक्तिने प्रगट करीने मुक्तिमां एकलो शुद्ध संयोगरहित रही गयो. जे पोताना
स्वभावथी ज शुद्ध थयो तेणे पोताना स्वभावमांथी ज शुद्धता प्राप्त करी छे, परंतु कोई संयोगमांथी के राग द्वेष
विकल्प इत्यादि जे छूटी गया तेमांथी शुद्धता प्राप्त करी नथी. कर्म अने विकारी भावनो नाश करीने, तथा मनुष्यदेह,
पांच इन्द्रियो अने देव–गुरु–शास्त्र वगेरे बधाना लक्षने छोडीने उपादान स्वरूपनी एकाग्रताना बळे जीवे पोतानी
शुद्धदशा प्रगट करी लीधी. ए ज उपादाननी जीत छे.
प्रश्नः– आ दोहामां कह्युं छे के ‘अब नहि जोर बसाय’ एटले के जीवनी सिद्धदशा थया पछी निमित्तनुं जोर
चालतुं नथी; परंतु जीवनी विकार दशा वखते तो निमित्तनुं जोर चाले छे ने?
उत्तरः– नहि, निमित्त तो पर वस्तु छे. आत्मा उपर पर वस्तुनुं जोर कदापि चाली शकतुं नथी. परंतु