Atmadharma magazine - Ank 044
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४७३ः १४७ः
हवे व्यवहार श्रुतज्ञान अपेक्षाए जोईए तो अत्यारे श्रुतनो घणो मोटो भाग विच्छेद थई गयो छे अने
तेनो अंश विद्यमान छे. आज बार अंग चौद पूर्वना ज्ञाता तो नथी पण एक अंगना पण पूर्णपणे ज्ञाता
नथी...छतां–आजे आपणी पासे श्रुतनो जे नानकडो अंश विद्यमान छे ते सर्वज्ञ परंपराथी अविच्छिन्नपणे आवेलो
होवाथी तेनुं बिंदु पण सिंधुनुं कार्य करे छे.
आजे जे पवित्र सत्श्रुत विद्यमान छे तेमां ‘श्रीषट्खंडागम’ सौथी प्राचीन अने सर्वज्ञ परंपराथी चाली
आवेला छे. आपणा सौराष्ट्र देशमां गीरनार पर्वतनी चंद्र गुफामां एक महामुनि धरसेनाचार्य ध्यान करता हता.
तेओ अंगो अने पूर्वोना एकदेशना ज्ञाता हता. तेओ महा विद्वान अने श्रुतवत्सल हता. एक वार तेओश्रीने एवो
भय उत्पन्न थयो के हवे अंग–श्रुत विच्छेद थई जशे...आथी तेओने विकल्प उठयो के श्रुतज्ञान अविच्छिन्नपणे
जयवंत रहे!...अने श्रुतनुं अविच्छिन्नपणे वहन करी शके एवा पुष्पदंत आचार्य अने भूतबलि आचार्य ए बे
समर्थ मुनिराजो धरसेनाचार्य पासे आव्या, तेओने आचार्यदेव पासेथी जे श्रुत मळ्‌युं ते तेओए पुस्तकारूढ कर्युं,
अने लगभग २००० वर्ष पहेलां जेठ सुद प ना रोज ए पुस्तक (षट्खंडागम) नी श्री भूतबलि आचार्यदेवे
चतुर्विध संघ सहित पूजा करी हती. त्यारथी ते तिथिए श्रुतनी पूजा अने महोत्सव ऊजवाय छे अने ते दिवस
श्रुतपंचमी तरीके प्रसिद्ध छे. जैनशासनमां प्रथम लखाणरूपे षट्खंडागम लखाया छे. आचार्य भगवंतोनी परम
कृपाथी ए पवित्र श्रुतनो लाभ आजे पण आपणने मळे छे.
त्यारपछी अध्यात्म शास्त्रो रचायां. आजथी लगभग २००० वर्ष पहेला महा समर्थ आचार्य भगवान श्री
कुंदकुंदाचार्यदेवे समयसार वगेरे परम अध्यात्म शास्त्रोनी रचना करी तेमां सर्वज्ञदेवोनी दिव्यवाणीनुं रहस्य समावी
दीधुं. अने ए अपूर्व श्रुतनी प्रतिष्ठा वडे तेओश्रीए बार अंग अने चौद पूर्वना विच्छेदने भूलावी दीधो.
आ रीते, जेम निश्चय श्रुतज्ञान आजे अविच्छिन्नपणे वर्ते छे तेम, व्यवहार श्रुत (द्रव्यश्रुत) पण
अविच्छिन्नपणे वर्ती रह्युं छे. परंतु–
आजे आपणी पासे विपुल श्रुत भंडार शास्त्ररूपे विद्यमान होवा छतां,–तेनो अंतरंग मर्म तो श्रुतज्ञानी
पुरुषोना हृदयमां भरेलो छे. एकावतारी ज्ञानी पुरुष श्रीमद् राजचंद्रजी कही गया छे के शास्त्रमां मार्ग कह्यो छे, पण
तेनो मर्म ज्ञानीने सोंप्यो छे एटले के एकला शास्त्र वांचीने तेनो मर्म नहि समजाय. पण ज्ञानीना समागमे
शास्त्रनो मर्म समजाशे अने सत्श्रुतनी प्राप्ति थशे.
णवी होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव।। ६।।
सत्श्रुतना आ एक ज सूत्रमां भरेला बार अंग अने चौद पूर्वना मूळभूत रहस्योने तो साक्षात् श्रुतमूर्ति
ज्ञानीओ ज प्रगट करी शके. आजे एवा श्रुतमूर्ति सद्गुरुदेव पासेथी आपणने ए श्रुतनुं रहस्य मळी रह्युं छे ते
आपणुं परम सौभाग्य छे...एवा श्रुतमूर्तिनी उपासना वडे आपणने सत्श्रुतनी शीघ्र प्राप्ति थाव... अने...आत्म
हितकारी सत्श्रुत सदाय जयवंत रहीने जगतनुं कल्याण करो–ए ज मंगळ भावना!!!
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जो के व्यवहारनय अभूतार्थ छे तो पण
व्यवहारनय व्यवहारी जीवोने परमार्थनो कहेनार छे तेथी, अपरमार्थभूत होवा छतां पण धर्म तीर्थनी प्रवृत्ति
करवा माटे (व्यवहारनय) दर्शाववो न्यायसंगत ज छे. (समयसार गाथा ४६ टीका)
(ता. १प–१२–४४ना रोज थयेल व्याख्यानमांथी)
निश्चय अने व्यवहार ए बे नयो छे, तेमां निश्चयनय एम बतावे छे के कोई द्रव्यने कोई द्रव्यनो संबंध
नथी. एटले के द्रव्य शुद्ध ज छे, तोपण–व्यवहारनय एक द्रव्यने बीजा द्रव्यनो संबंध वर्तमान पूरतो बतावे छे
एटले के अवस्थामां अशुद्धता छे एम जणावे छे. आ रीते निश्चय अने व्यवहार (द्रव्य अने पर्याय) बंने न माने
तो ज्ञान खोटुं छे, व्यवहारनय पण अस्तिरूप छे. व्यवहारनय छे खरो पण ते व्यवहार जाणवा पूरतो छे. जो
व्यवहारनयने आदरणीय माने तो तेनी द्रष्टि खोटी छे, अने जो वर्तमान पूरतो व्यवहार छे तेने न ज माने तो
ज्ञान खोटुं छे. हेय बुद्धिए पण व्यवहारने जाणवो पडशे. निश्चयथी व्यवहार हेय होवा छतां वर्तमान पूरतो
व्यवहारने जाणवो तो पडशे ज. व्यवहारनुं ज्ञान व्यवहारनुं जोर बताववा