नथी...छतां–आजे आपणी पासे श्रुतनो जे नानकडो अंश विद्यमान छे ते सर्वज्ञ परंपराथी अविच्छिन्नपणे आवेलो
होवाथी तेनुं बिंदु पण सिंधुनुं कार्य करे छे.
तेओ अंगो अने पूर्वोना एकदेशना ज्ञाता हता. तेओ महा विद्वान अने श्रुतवत्सल हता. एक वार तेओश्रीने एवो
भय उत्पन्न थयो के हवे अंग–श्रुत विच्छेद थई जशे...आथी तेओने विकल्प उठयो के श्रुतज्ञान अविच्छिन्नपणे
जयवंत रहे!...अने श्रुतनुं अविच्छिन्नपणे वहन करी शके एवा पुष्पदंत आचार्य अने भूतबलि आचार्य ए बे
समर्थ मुनिराजो धरसेनाचार्य पासे आव्या, तेओने आचार्यदेव पासेथी जे श्रुत मळ्युं ते तेओए पुस्तकारूढ कर्युं,
अने लगभग २००० वर्ष पहेलां जेठ सुद प ना रोज ए पुस्तक (षट्खंडागम) नी श्री भूतबलि आचार्यदेवे
चतुर्विध संघ सहित पूजा करी हती. त्यारथी ते तिथिए श्रुतनी पूजा अने महोत्सव ऊजवाय छे अने ते दिवस
श्रुतपंचमी तरीके प्रसिद्ध छे. जैनशासनमां प्रथम लखाणरूपे षट्खंडागम लखाया छे. आचार्य भगवंतोनी परम
कृपाथी ए पवित्र श्रुतनो लाभ आजे पण आपणने मळे छे.
दीधुं. अने ए अपूर्व श्रुतनी प्रतिष्ठा वडे तेओश्रीए बार अंग अने चौद पूर्वना विच्छेदने भूलावी दीधो.
तेनो मर्म ज्ञानीने सोंप्यो छे एटले के एकला शास्त्र वांचीने तेनो मर्म नहि समजाय. पण ज्ञानीना समागमे
शास्त्रनो मर्म समजाशे अने सत्श्रुतनी प्राप्ति थशे.
आपणुं परम सौभाग्य छे...एवा श्रुतमूर्तिनी उपासना वडे आपणने सत्श्रुतनी शीघ्र प्राप्ति थाव... अने...आत्म
हितकारी सत्श्रुत सदाय जयवंत रहीने जगतनुं कल्याण करो–ए ज मंगळ भावना!!!
एटले के अवस्थामां अशुद्धता छे एम जणावे छे. आ रीते निश्चय अने व्यवहार (द्रव्य अने पर्याय) बंने न माने
तो ज्ञान खोटुं छे, व्यवहारनय पण अस्तिरूप छे. व्यवहारनय छे खरो पण ते व्यवहार जाणवा पूरतो छे. जो
व्यवहारनयने आदरणीय माने तो तेनी द्रष्टि खोटी छे, अने जो वर्तमान पूरतो व्यवहार छे तेने न ज माने तो
ज्ञान खोटुं छे. हेय बुद्धिए पण व्यवहारने जाणवो पडशे. निश्चयथी व्यवहार हेय होवा छतां वर्तमान पूरतो
व्यवहारने जाणवो तो पडशे ज. व्यवहारनुं ज्ञान व्यवहारनुं जोर बताववा