Atmadharma magazine - Ank 044
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १४८ः आत्मधर्मः ४४
माटे नथी पण निश्चय बताववा माटे छे व्यवहारनय परमार्थनो कहेनार छे (परमार्थनुं लक्ष कराववा माटे
व्यवहारनो उपदेश छे.)
व्यवहारनय अभूतार्थ छे तोपण...एटले के आत्माने कर्मनो संबंध कहेवो ते अपरमार्थ छे तोपण वच्चे
ज्ञान करवा माटे ते आवे छे तेथी व्यवहार कह्या वगर चालतुं नथी. “भाई! सर्वज्ञ भगवाने कहेला तत्त्वोनुं
श्रवण कर, तुं आत्मानी ओळखाण कर” ए वगेरे उपदेश व्यवहार वगर थई शके नहि. जो व्यवहारे पण आत्माने
कर्मनो संबंध न ज होय तो आ राग–द्वेष अने संसार कोना? सम्यग्दर्शन पछी पण व्यवहारनुं अवलंबन
अवस्थानी नबळाईना कारणे आवे छे खरूं तेने ज्ञानीओ जेम छे तेम जाणे छे, जो व्यवहारनुं अवलंबन सर्वथा न
आवतुं होय तो वीतरागता प्रगट होय.
‘निश्चयथी तो ज्ञान ज्ञानमांथी ज आवे छे, देव–गुरु–शास्त्रना आधारे ज्ञान आवतुं नथी’–आवुं निश्चयनुं
वाक्य सांभळी कोई श्रवण–मनन–वांचननो शुभभाव छोडी ज दे तो ते ऊलटो अशुभ भावमां जोडाशे. सत्
समजवामां पहेलां सत्समागम, श्रवण, मनन वगेरे शुभभावरूप व्यवहार आव्या वगर रहे नहि. छतां ते शुभराग
ज्ञाननुं कारण नथी; परंतु कोइ शुष्कज्ञानी–निश्चयाभासी पहेली भूमिकामां ते शुभभावमां नहि जोडाय तो, हजी
वीतराग तो थयो नथी तेथी, अशुभमां जोडाशे अने हलकी गतिमां रखडशे.
“जो व्यवहार न दर्शाववामां आवे तो परमार्थे शरीरथी जीव भिन्न दर्शाववामां आवतो होवाथी, जेम
भस्मने मसळी नाखवामां हिंसानो अभाव छे तेम, त्रस–स्थावर जीवोनुं निःशंकपणे मर्दन करवामां पण हिंसानो
अभाव ठरशे अने तेथी बंधनो ज अभाव ठरशे.”
जो व्यवहारे शरीर अने जीवने कांई पण संबंध न ज होय तो, तथा अवस्थामां पण राग–द्वेष न ज होय
तो “सामा जीवनी हिंसा करुं” एवो विकल्प ज न होई शके. पण सामा जीवने शरीर उपर राग छे अने तेथी शरीर
साथे तेने निमित्त–नैमित्तिक संबंध रूप व्यवहार छे तथा पोते पण हजी वीतराग नथी थयो एटले अवस्थामां राग–
द्वेष छे ते व्यवहार छे तेथी सामा जीवने हणवानो विकल्प आवे छे. सामाने हणवानो विकल्प ऊठे छे ते तारो
व्यवहार छे, ते विकल्प पण क्यारे ऊठे छे? सामा जीवने शरीर उपर ममता भाव छे एटले के तेने शरीर साथे
निमित्त–नैमित्तिक संबंध वर्तमानमां छे ते तेनो व्यवहार छे–ए व्यवहारने जाण्यो एटले सामाने मारवानो भाव
तने थयो. निश्चयमां हिंसानो विकल्प होई शके नहि, केमके निश्चयथी कोई जीव मरतो नथी, जीव अने शरीर जुदां ज
छे अने जडने मारवामां हिंसा नथी एटले निश्चयमां तो हिंसानो विकल्प ज न होय. हवे जो व्यवहार न ज होत तो
सामाने मारवानो विकल्प न ज आवत. मारवानो जे विकल्प आवे छे ते ज व्यवहार छे. पोताने अने सामाने
बंनेने व्यवहार छे त्यारे ज विकल्प ऊठे छे. जो पोते वीतराग ज होत तो मारवानो विकल्प न होत, तथा जो सामो
जीव वीतराग होत तो पण तेने मारवानो विकल्प तने न आवत. “सिद्धने मारी नाखुं” एवो भाव कोईने आवे
नहि केमके तेओ वीतराग छे–तेमने व्यवहारनुं अवलंबन रह्युं नथी. तथा ते ज कारणे सिद्ध भगवानने “हुं अमुक
जीवने मारूं” एवो कोई विकल्प नथी. व्यवहारना अवलंबन वगर विकल्प ऊठे नहि शरीर वगेरेनी क्रिया आत्मा
करी शके एवी मान्यताने लोको व्यवहार कहे छे, परंतु ते व्यवहार नथी. ए मान्यता तो मिथ्यात्व छे.
सम्यक्द्रष्टि थतां श्रद्धामां कर्मनो संबंध, निमित्त, विकार अने अवस्था ए बधुं छूटी जाय छे तोपण
सम्यक्ज्ञान तो संयोग, निमित्त अने अवस्था वगेरे बधुं जेम छे तेम जाणे छे.
वस्तुद्रष्टिमां अवस्थानुं लक्ष नथी. एटले वस्तुद्रष्टिए बधा जीव सरखा छे, छतां पण निगोदनो जीव
वर्तमान अवस्थाथी सिद्ध नथी, ए अवस्था जो व्यवहारे पण न मानवामां आवे तो निगोद अने सिद्धमां कांई भेद
ज रहेतो नथी.
वस्तुद्रष्टिथी बधाय परमाणुओ सरखां ज छे, छतां पण ‘रोटला खवाय अने मांस न खवाय’ एवो
विकल्प केम आवे छे? जो व्यवहार न ज होत–अवस्था न ज होत तो ‘आ खवाय अने आ न खवाय’ एवो पर
तरफनो विकल्प होई शके नहि; परंतु अवस्था छे, व्यवहार छे, ए व्यवहारने जाणे छे त्यारे ‘आ खवाय अने आ
न खवाय” एम अवस्थानो विवेक करे छे, ते व्यवहार छे.