Atmadharma magazine - Ank 044
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४७३ः १४९ः
“अरिहंतनो आत्मा वंदन करवा योग्य छे” आवुं वाक्य छे. हवे निश्चयथी तो (द्रव्य अपेक्षाए) अरिहंत
देवोनो आत्मा अने हजारो गायो कापनार कषाईनो आत्मा सरखां ज छे; छतां कषाईने कोई वंदन करतुं नथी अने
अरिहंतने वंदन करे छे. हवे विचारो के ते वंदन वस्तुद्रष्टिए करे छे के अवस्थाद्रष्टिए? जो वस्तु द्रष्टि होत तो,
वस्तुद्रष्टिमां बधा आत्मा सरखा होवाथी वंदननो विकल्प ज न होत. पण पोतानी अपूर्ण अवस्था उपर लक्ष जतां
वंदननो विकल्प आवे छे. पोतानी अवस्थाद्रष्टि जतां सामे पण अवस्थानो विवेक करीने अरिहंतने वंदन करे छे
अने कषाईने वंदन करतो नथी. आ रीते व्यवहार छे, ते व्यवहारने ज अवस्थामां जेम छे तेम ते अवस्थामां
ओळखवो पडशे.
निश्चयथी जोतां बधी स्त्रीओ सरखी ज छे, स्त्री अने माता बंने निश्चयथी सरखां छे, छतां जे रीते स्त्री
साथे वर्ते छे ते रीते माता साथे वर्ततो नथी केमके अवस्थाद्रष्टिए बंनेमां अंतर छे, अवस्थानो विवेक छे करे छे, ए
व्यवहार छे.
पोताना आत्मानी अपेक्षाए तो पाडो अने बाप बंने निश्चयथी सरखां छे; जो तुं व्यवहार न मानतो हो
तो पाडाने ‘बापो’ कहीने केम नथी बोलावतो? अवस्थामां व्यवहार छे के नहि? जो अवस्थामां पण व्यवहार न
ज होय तो ‘पाडो’ अने ‘बापो’ तेमां कांई भेद रहेतो नथी; परंतु अवस्था पूरतो संबंध बताववा माटे व्यवहार
छे.
व्यवहार छे खरो पण आदरणीय नथी. ‘व्यवहार छे’ एम कहेतां जो व्यवहारने ज आदरणीय मानी बेसे
तो ते त्रिकाळी तत्त्वनुं खून करे छे; अने जो व्यवहारने व्यवहार तरीके पण न जाणे तो चैतन्यमूर्ति सीमंधर
भगवाननी प्रतिमामां अने अन्य मतमां मनाती कुलींगी प्रतिमामां भेद ज नहि पाडे. आ सीमंधर भगवाननी
प्रतिमा पण जडनी छे अने कुलींगी प्रतिमा पण जडनी छे, बंने प्रतिमाओ जडनी होवा छतां स्थापना निक्षेपनी
अपेक्षाए बंनेमां फेर छे. “आ प्रतिमा सीमंधर भगवाननी छे’ एम स्थापना निक्षेपे कहेवाय छे. ते स्थापना
निक्षेपने जेम छे तेम जाणीने व्यवहारनो विवेक करे छे तेथी ज सीमंधर भगवाननी प्रतिमाने वंदन करे छे अने
कुलींगी प्रतिमाने वंदन करतो नथी. (स्थापना निक्षेप पोते व्यवहार छे, तेने जाण्या विना जे कुलींगने पण नमस्कार
करे छे तेने गृहितमिथ्यात्वनो त्याग नथी.)
हवे पुस्तकोनो विषय लईए. निश्चयथी जोतां तो आ श्री समयसार शास्त्र पण जड छे अने बीजा कुशास्त्रो
पण जड छे. बंने जड होवा छतां समयसार शास्त्रने वंदन करवुं अने कुशास्त्रोने वंदन न करवुं तेनुं शुं कारण? तेनुं
कारण त्यां अवस्थानो विवेक छे. आ समयसार शास्त्ररूप परिणमेला परमाणुओमां सत्समजणनुं निमित्त थवानी
लायकातरूप वर्तमान अवस्था छे अने अन्य कुशास्त्रोमां ते लायकातरूप अवस्था नथी–ए रीते अवस्थाने जाणीने
श्री समयसारने वंदन करे छे, त्यां व्यवहारनो विवेक छे.
जेने देव–गुरु–शास्त्र तरफना शुभभावनुं वलण पण नथी अने जे संसारनो कामी, तीव्र, लोलूपी, तीव्र
गृद्धि अने तीव्र राग–द्वेष सहित छे तेने तो तत्त्व समजाशे ज नहि. कोई निश्चयनी मुख्यता सहितनो उपदेश
सांभळीने देव–गुरु–शास्त्रनी ओळखाण, भक्ति, विनय पूजादिरूप व्यवहार नहि माने तो तेने पण परमार्थ
तत्त्वनी श्रद्धा थई शकशे नहि. अने कोई देव–गुरु–शास्त्रनी भक्ति आदिरूप व्यवहारने ज परमार्थ मानी ल्ये तो
पण ते परमार्थ समज्यो नथी, तेनी द्रष्टि खोटी छे.
परमार्थ स्वरूपनी द्रष्टि मुख्य राखीने अवस्थाना व्यवहारनो
विवेक चूकवो न जोइए.
निश्चयथी राग मारूं स्वरूप नथी, वस्तुस्वरूपमां राग छे ज नहि, वस्तु तो त्रिकाळ शुद्ध स्वभाव छे एम
वस्तु स्वभावने लक्षमां लेनार परमार्थद्रष्टिना विषयमां तो निर्मळ पर्याय पण आवती नथी; पण वस्तु अने
वस्तुने लक्षमां लेनार परमार्थद्रष्टि ए बंनेने जाणनारूं जे सम्यक्ज्ञान छे ते ज्ञान त्रिकाळ स्वभाव अर्थात् निश्चय
अने वर्तमान अवस्था अर्थात् व्यवहार ए बंनेने जेम छे तेम जाणे छे. ए प्रमाणे सम्यग्ज्ञानवडे निश्चय–व्यवहार
बंनेने जाणीने निश्चयने आदरवा योग्य अने व्यवहारने जाणवा योग्य मानवो तेनुं नाम
यथार्थ श्रद्धा छे.
(ता. १६–१२–४४ गाथा ४६ टीका चालु)
एकला स्व साथे संबंध बतावे एटले के परमार्थ–स्वरूप बतावे ते निश्चय छे अने पर साथे संबंध बतावे
ते व्यवहार छे. आत्मामां कर्मनी अपेक्षा न लेवामां आवे तो बंध मोक्ष न होई शके; एक लाकडामां बीजानी अपेक्षा
लीधा वगर “आ नानुं छे के मोटुं” ए कही शकाशे नहि अर्थात् एकमां नाना मोटाना भेद पडी शकशे नहि. एकली
आत्मवस्तुमां बे भेद न होय,