अरिहंतने वंदन करे छे. हवे विचारो के ते वंदन वस्तुद्रष्टिए करे छे के अवस्थाद्रष्टिए? जो वस्तु द्रष्टि होत तो,
वस्तुद्रष्टिमां बधा आत्मा सरखा होवाथी वंदननो विकल्प ज न होत. पण पोतानी अपूर्ण अवस्था उपर लक्ष जतां
वंदननो विकल्प आवे छे. पोतानी अवस्थाद्रष्टि जतां सामे पण अवस्थानो विवेक करीने अरिहंतने वंदन करे छे
अने कषाईने वंदन करतो नथी. आ रीते व्यवहार छे, ते व्यवहारने ज अवस्थामां जेम छे तेम ते अवस्थामां
ज होय तो ‘पाडो’ अने ‘बापो’ तेमां कांई भेद रहेतो नथी; परंतु अवस्था पूरतो संबंध बताववा माटे व्यवहार
भगवाननी प्रतिमामां अने अन्य मतमां मनाती कुलींगी प्रतिमामां भेद ज नहि पाडे. आ सीमंधर भगवाननी
प्रतिमा पण जडनी छे अने कुलींगी प्रतिमा पण जडनी छे, बंने प्रतिमाओ जडनी होवा छतां स्थापना निक्षेपनी
अपेक्षाए बंनेमां फेर छे. “आ प्रतिमा सीमंधर भगवाननी छे’ एम स्थापना निक्षेपे कहेवाय छे. ते स्थापना
निक्षेपने जेम छे तेम जाणीने व्यवहारनो विवेक करे छे तेथी ज सीमंधर भगवाननी प्रतिमाने वंदन करे छे अने
कुलींगी प्रतिमाने वंदन करतो नथी. (स्थापना निक्षेप पोते व्यवहार छे, तेने जाण्या विना जे कुलींगने पण नमस्कार
कारण त्यां अवस्थानो विवेक छे. आ समयसार शास्त्ररूप परिणमेला परमाणुओमां सत्समजणनुं निमित्त थवानी
लायकातरूप वर्तमान अवस्था छे अने अन्य कुशास्त्रोमां ते लायकातरूप अवस्था नथी–ए रीते अवस्थाने जाणीने
सांभळीने देव–गुरु–शास्त्रनी ओळखाण, भक्ति, विनय पूजादिरूप व्यवहार नहि माने तो तेने पण परमार्थ
तत्त्वनी श्रद्धा थई शकशे नहि. अने कोई देव–गुरु–शास्त्रनी भक्ति आदिरूप व्यवहारने ज परमार्थ मानी ल्ये तो
पण ते परमार्थ समज्यो नथी, तेनी द्रष्टि खोटी छे.
वस्तुने लक्षमां लेनार परमार्थद्रष्टि ए बंनेने जाणनारूं जे सम्यक्ज्ञान छे ते ज्ञान त्रिकाळ स्वभाव अर्थात् निश्चय
अने वर्तमान अवस्था अर्थात् व्यवहार ए बंनेने जेम छे तेम जाणे छे. ए प्रमाणे सम्यग्ज्ञानवडे निश्चय–व्यवहार
बंनेने जाणीने निश्चयने आदरवा योग्य अने व्यवहारने जाणवा योग्य मानवो तेनुं नाम
लीधा वगर “आ नानुं छे के मोटुं” ए कही शकाशे नहि अर्थात् एकमां नाना मोटाना भेद पडी शकशे नहि. एकली
आत्मवस्तुमां बे भेद न होय,