एकली वस्तु ते द्रष्टिनो विषय छे. व्यवहारनय परनी अपेक्षा बतावे छे तेथी
“आदरवो न्यायसंगत ज छे” एम कह्युं नथी; एटले व्यवहारनय आदरणीय नथी, पण जाणवा योग्य छे.
क्यां करशे? एटले व्यवहारने नहि मानो तो पण वस्तु समजाशे नहि अने जो ते व्यवहारनुं ज लक्ष रहेशे तो पण
अखंड वस्तु के जे निश्चयनो विषय छे ते ख्यालमां आवशे नहि. व्यवहार समज्या वगर परमार्थ समजशे क्यांथी?
अने परमार्थ नहि समजे तो व्यवहार कामनो शुं?
राग–द्वेषरहित, कर्मना संयोग रहित, अने पर्यायना भेद रहित
परस्पर विरोध छे; त्यां व्यवहारनय तो अवस्थामां जेम छे तेम जाणे छे, देव–गुरु–शास्त्रनुं निमित्त छे, राग
छे, ऊणप छे, कर्मनो संग छे, शरीरनो संयोग छे–ए बधुं जाणे छे अने निश्चयनय त्रिकाळस्वभावनुं ज लक्ष
करे छे, त्रिकाळ स्वभावमां राग–द्वेष नथी, संयोग नथी, निमित्त नथी, ऊणप नथी, शरीर नथी, कर्म नथी–एम
स्वभाव द्रष्टिना जोरमां निश्चयनय बधुं उडाडी दे छे, अने व्यवहारनय ते बधुं जेम छे तेम बतावे छे; ए
व्यवहारने जाणवो अने निश्चयने जाणीने आदरवो–ते ज बंने नयोनो विरोध मटाडवानो उपाय छे अने ए ज
रीते यथार्थ श्रद्धान थाय छे, ते ज सम्यक्त्व छे. पण बंने नयोना कथनने समान जाणवुं अर्थात् बंनेने
आदरणीय मानवा ते यथार्थ श्रद्धान नथी. बंने नयोने न माने अने एकने ज माने, अथवा तो बंने नयोने
आदरणीय मानी ले तो श्रद्धा अने ज्ञान बंने खोटा छे.
सारा सारा संयोगोनी प्राप्ति थशे एम मानीने ते पुण्यनी होंश करे छे. पुण्यनी होंश करतां मुक्त आत्म स्वभावनो
अनादर थाय छे अने अनंत संसारनो आदर थाय छे तेनुं अज्ञानीने लेश मात्र भान नथी. परंतु बाह्यद्रष्टि छोडीने,
आत्मामां ते पुण्य भावनुं फळ शुं आवे छे ते समजवानी जो दरकार करे तो, आत्मामां तो पुण्यभावथी दुःखनी ज
उत्पत्ति छे एम तेने समजाय, तेथी ते कदी पुण्यमां होंश न करे अने पुण्यमां कदी धर्म न माने...तेमज तेने धर्मनो
हेतु न माने. केटलाक कहे छे के–पुण्य धर्म नथी ए तो खरूं, पण ते धर्मनुं कारण अर्थात् हेतु छे. तेमनी ए मान्यता
पण मिथ्या छे.
अस्ति नाबन्ध हेतुर्वा शुभोनाप्य शुभावहात्।।
निर्जरादिनुं कारण) थई शकतुं नथी अने तेने ‘शुभ’ पण कहेवातुं नथी. भावार्थः– शुभोपयोगने निर्जरानुं कारण
मानवुं न जोईए, कारण के शुभोपयोग पण बंधनुं ज कारण छे; तेथी तेने मात्र व्यवहारथी ‘शुभ’ कहेवाय छे;
खरेखर तो जेनाथी संवर–निर्जरा थाय तेने ज ‘शुभ’ कहेवाय छे, शुभोपयोगथी जे शुभबंध थाय छे ते पण बंध
ज छे तेथी शुभोपयोग पण ‘अशुभ’ ज छे–शुभ नथी.