होय तो आत्माना आधार वगर ज्ञाननी क्रिया थाय नहि. अने जो आत्मामां ज्ञानगुण एकपणे न होय तो ज्ञान
वगर आत्मा केवी रीते जाणे? अने आत्मा वगर ज्ञानगुण केवी रीते जाणे?
अवलंबनथी ज्ञान माने तो तेने कदी सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्याय प्रगटे नहि अने जन्म मरणनो अंत आवे नहि.
अने कदाच शास्त्रनुं ज्ञान न होय परंतु पोतानी पात्रताथी सत्पुरुष पासेथी सांभळीने जो स्वाश्रयभावे द्रव्यगुणनी
एकता समजे अने तेनो आश्रय करे तो द्रव्यगुणना ज आश्रये पर्याय निर्मळ प्रगटे अने जन्म–मरणनो अंत आवे.
सत्पुरुषनी पासेथी श्रवण कर्या वगर पोताना स्वछंदे गमे तेटला शास्त्रो वांचे तोपण सत् स्वभाव पामी शके नहि.
आ संबंधमां श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के–
जिनवर कहे छे ज्ञान तेने सर्व भव्यो सांभळो.
प्रगटे–आ ज प्रयोजन छे. ए प्रयोजन समज्या वगर पोतानी कल्पनाथी करोडो शास्त्रो वांची जाय, के समयसार
शास्त्र भले हजारो वार वांची जाय पण तेने आत्मानो किंचित् लाभ थाय नहि. स्वछंद छोडीने ज्ञानी पुरुषना
समागमे देशनालब्धि वगर पोतानी
पात्रताथी देशनालब्धि ज्ञानी पुरुष पासेथी मेळववी जोईए.
ग्रहण, धारण तथा विचारणानी शक्तिनी यथायोग्य प्राप्ति थवी ते देशनालब्धि छे. ज्ञानी पुरुषना समागमे पोते
पात्र थईने बहुमानपूर्वक अंतरमां सत्नुं ग्रहण करी लीधुं छे–विचार शक्ति पण प्रगट करी छे पण वर्तमान साक्षात्
अनुभव थयो नथी–एवी पात्रताने देशनालब्धि कहेवाय छे. एवी देशनालब्धि प्रगट करे तेने अवश्य अनुभव वडे
सम्यग्दर्शन प्रगटे. पण पहेलां ज्ञानी पासेथी उपदेश श्रवण करीने देशनालब्धि प्रगट कर्या वगर कोई जीवने
त्रणकाळमां धर्म परिणमे नहि.
पावै नहि गुरु गम विना एही अनादि स्थित.
आभ्यंतर उपकरण छे. पुरुषनी अंतरशक्ति वगर छेदवानुं कार्य थाय नहि. (अहीं मात्र द्रष्टांत होवाथी लौकिक
अपेक्षाए कथन समजवुं. वास्तविकपणे तो जडनी क्रिया जडथी स्वयं थाय छे. पण पुरुष अने पुरुषनी शक्ति ए
बंनेमां भिन्नता नथी एटलुं द्रष्टांतमांथी लेवानुं छे.) तेम आत्मामां ज जाणवानी शक्ति छे तेनाथी ते जाणे छे.
बाह्य निमित्तोथी ज्ञाननी शक्ति थती नथी, पण ज्ञान अने आत्मा सदाय एकरूप ज छे. प्रकाश, शास्त्र, उपाध्याय,
वगेरे बाह्यकारणो होवा छतां जो आत्मामां ज ज्ञाननी शक्ति न होय तो जाणवानी क्रिया क्यांथी थाय? जो वस्तुमां
ज स्वयं शक्ति न होय तो कोई पर वडे ते उत्पन्न थई शके नहि. अने जो वस्तुमां ज शक्ति छे तो पछी पर वडे ते
थाय छे एम केम कहेवाय? बहारमांथी आत्मानुं ज्ञान प्रगटतुं नथी पण अंतरमां त्रिकाळ छे तेमांथी ज प्रगटे छे. जो
रागरहित स्वभावने जाणवानी अंतरमां ताकात न होय तो बहारमां शास्त्र, गुरु, वगेरे पर लक्षे सम्यग्ज्ञान प्रगटी
शकतुं नथी. ज्यां त्रिकाळ शक्ति छे त्यां एकाग्र थाय तो