Atmadharma magazine - Ank 045
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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आषाढः २४७३ः १७९ः
सम्यग्ज्ञान प्रगटे. माटे ज्ञानज्ञानीनी एकतानी प्रतीति ते ज सम्यग्ज्ञाननुं कारण छे. ए ज्ञान वगर राग तोडीने
स्वभावनी एकता करवानी क्रिया आत्मा कदी करी शकतो नथी.
वीतरागी सहज सुंदर सुखरूप परमानंद स्वभावनो अजाण अज्ञानी जीव बहारमांथी ज्ञान–आनंद माने छे
अने तेथी ते बहारमां ज शोधे छे, पण स्वसन्मुख थईने अंतरमां शोधतो नथी. आत्मा अने ज्ञाननी एकतानी
प्रतीतिवडे अभेदरूप निज शुद्धात्मानी अनुभूति ते ज उपादेय छे.
भगवान आत्मा आनंदस्वरूप छे, आनंद साथे एकमेक छे, तेना आनंद माटे बहारमां कोई साधन नथी,
पण स्वयं आनंद स्वभाव साथे अभेदरूप छे एनी प्रतीत अने अंतरमुख वलण ते ज आनंद प्रगटवानुं साधन छे.
खावा पीवामां के रागमां क्यांय आत्मानो आनंद नथी. गिरीगूफामां आनंद नथी, पण आनंद अने आत्मा
एकाकार छे त्यां एकाग्र थतां आनंद प्रगटे छे. हुं मारा वीतरागी आनंद स्वभावमां एकता करूं त्यां राग साथेनी
एकता छूटी ज जाय छे अने संयोग तो छूटेला ज छे. आम जो स्वाश्रय आनंदनी प्रतीत करे तो परमां आनंद के
सुखनी कल्पना स्वप्ने पण न रहे, अने स्वाश्रये आनंद प्रगटे.
संयोग सारा होय तो धर्म करवो ठीक पडे–एम माननार संयोगोमांथी धर्मनी उत्पत्ति माने छे, पण पोताना
स्वभावमां धर्म छे तेनी प्रतीति करतो नथी. पोताना आत्माने अने गुणने एकतापणे जाण्या नथी तेथी संयोगथी
गुण प्रगटे एम माने छे. जींदगीभर आजीविका चाले एटली लक्ष्मी मळी जाय तो शांतिथी आत्मसाधन करी शकाय–
एम अज्ञानी माने छे. भाई, शुं लक्ष्मीना अवलंबने तारी शांति छे? के स्वभावना अवलंबने छे? लक्ष्मी होय के न
होय, पण तारो आत्मा तो तारी शांति साथे त्रिकाळ एकरूप छे, तेनुं लक्ष कर तो शांति प्रगटे. लक्ष्मी वगेरेनो राग
होय ते जुदी वात छे पण तेना आश्रये धर्म प्रगटशे एम ज्ञानी मानता नथी. मारा स्वभावना आश्रये जे समये
एकता करीने लीन थाउं ते ज समये स्वभावमां ज ज्ञान आनंद छे ते प्रगटे छे, पण पहेलां पोते त्रिकाळी
चैतन्यस्वरूप छे तेनी प्रतीति करे तो वर्तमानमां प्रगटे ने! सामान्य स्वभावे त्रिकाळ आनंद स्वरूप छुं एम
सामान्यनुं लक्ष करे तो विशेषमां आनंद प्रगटे.
आत्मानो वीतरागी आनंद सहज अने सुंदर छे. सहज एटले पोताना स्वभावथी ज, तेने कोई परनुं
अवलंबन नथी पण पोताथी ज ते आनंदरूप छे. आत्मा अने आनंद त्रिकाळ एकरूप छे. अज्ञानी आत्माने पण
तेनो आनंदगुण त्रिकाळ अभेदरूप पोतामां ज छे, पण तेने तेनी प्रतीति नहि होवाथी पर्यायमां प्रगट अनुभव थतो
नथी. जे सत् स्वभाव छे तेनी प्रतीति करवी ते ज आनंद प्रगट करवानो उपाय छे; एनी प्रतीति न करे तो अन्य
कोई पण साधनथी आनंद प्रगटवानो नथी. कोई लोको कहे छे के काळ कठण छे तेथी धर्म समजवो मुश्केल लागे छे.
पण ज्ञानीओ कहे छे के तारी पर्याय ते ज तारो स्वकाळ छे. तुं तारा आत्मस्वभावनी प्रतीति करीने स्वपर्यायने
स्वभावमां एकाग्र कर, तो तारो सारो ज काळ छे. तारो काळ तो तारी ज पर्यायमां छे. तने तारा स्वतंत्र स्वकाळने
सुधारवानी खबर न पडे अने तुं बहारना काळथी शांति लेवा माग, परंतु ए उपायथी तारी शांति प्रगटवानी नथी.
तारी शांति परमां नथी. पण तारामां ज छे.
गुणो द्रव्यना ज आश्रये छे, गुण एकलो न होई शके. द्रव्यना आश्रये बधा गुण रहेला छे, पण एक गुणने
आश्रये बीजो गुण रहेलो नथी. गुण अपेक्षाए एक गुणथी बीजो गुण स्वतंत्र छे. पण बधाय गुणो तो एक द्रव्यना
ज आश्रये छे. द्रव्यने अने गुणने भेद नथी. द्रव्यने छोडीने गुण क्यांय रहेता नथी. अभेद द्रव्यद्रष्टिथी जोईए त्यारे
बधा गुण पर्यायथी अभेदरूप एक द्रव्य छे. पण गुणभेद के पर्यायभेदथी जोईए तो अनंतगुण अने अनंत पर्यायो
छे, ते दरेक गुण स्वतंत्र छे अने दरेक पर्याय पण स्वतंत्र छे.
घणाने प्रश्न ऊठे छे के द्रव्य–गुण तो त्रिकाळ शुद्ध छे, तो पर्यायमां विकार केम? तेनो उत्तर ए छे के ते समयनी
पर्याय स्वतंत्र छे, स्वतंत्रपणे ते पर्याय विकाररूपे परिणमे छे, ते पर्यायनो तेवो स्वभाव छे. ते समयनी पर्याय स्वाधीन
द्रव्य स्वभावमां लीन न थतां परमां लीन थई तेथी ते विकाररूपे थई छे; ते पोते ज कारण कार्यरूप छे.
पहेलां तो गुणगुणी अभेद छे तेनी द्रष्टि कर्या पछी भेदथी जोतां दरेक गुण स्वतंत्र छे, दरेक गुण
पोतपोताना आधारे छे. अने दरेक पर्याय पोतपोताना आधारे छे. पण द्रव्यथी जोतां द्रव्य–गुण तो त्रिकाळ