ः १८२ः आत्मधर्मः ४प
न कहेवाय. धर्मास्तिकाय तो बंनेमां हाजर छे, ते कांई पदार्थोने चलावतुं नथी; पण पदार्थ गति करे तो मात्र
आरोपथी तेने निमित्त कहेवाय छे. आ ज प्रमाणे बधा निमित्तो धर्मास्तिकायवत् समजवा.
कमळ खीले तेमां सूर्य निमित्त छे एटले जो कमळ स्वयं खीले तो सूर्यने निमित्तनो आरोप आवे अने जो
कमळ न खीले तो सूर्यने निमित्तनो आरोप आवे नहि. कमळना कार्यमां सूर्ये कांई कर्युं नथी, ते तो धर्मास्तिकायवत्
हाजर मात्र छे.
साची समजणमां गुरुनुं निमित्त छे एटले जो जीव पोते स्वयं साचुं समजे तो गुरुने निमित्तनो आरोप
आवे अने जो जीव पोते साचुं न समजे तो गुरुने निमित्त कहेवाय नहि. सामा जीवना ज्ञानमां गुरुए कांई ज कर्युं
नथी, ते तो धर्मास्तिकायवत् मात्र हाजररूप छे.
माटीमांथी घडो थाय तेमां कुंभार निमित्त छे एटले माटी स्वयं घडारूप परिणमे त्यारे कुंभारमां निमित्तनो
आरोप आवे, अने जो माटी घडारूप न परिणमे तो कुंभारने निमित्त कहेवाय नहि. माटीना कार्यमां कुंभारे कांई कर्युं
नथी, कुंभार तो धर्मास्तिकायवत् हाजर मात्र छे. आ प्रमाणे ज्यां ज्यां परवस्तुने निमित्त कहेवामां आवे त्यां
सर्वत्र “धर्मास्तिकायवत्” एम समजी लेवुं.
जे पदार्थ स्वयंकार्यरूपे परिणमे ते निश्चय छे, अने बीजा पदार्थमां आरोप करीने तेने निमित्त कहेवुं ते
व्यवहार छे. ज्यां निश्चय होय त्यां व्यवहार होय ज छे–अर्थात् ज्यां उपादान स्वयं कार्यरूप परिणमे त्यां निमित्तरूप
पर वस्तुनी हाजरी होय ज छे. उपादाने पोतानी शक्तिथी कार्य कर्युं एम ज्ञान करवुं ते निश्चयनय छे अने ते वखते
हाजर रहेली परवस्तुनुं ज्ञान करवुं ते व्यवहारनय छे. ३.
उपादान निज गुण जहां तहां निमित्त पर होय.
भेदज्ञान परमाण विधि विरला बुझे कोय. ४.
अर्थः– ज्यां पोतानो गुण उपादानरूपे तैयार थाय त्यां तेने अनुकूळ पर निमित्त होय ज. आवी भेदज्ञाननी
साची रीत छे तेने कोई वीरला जीवो ज जाणे छे.
उपादान पोतानी शक्तिथी कार्य करे अने त्यारे निमित्त होय पण ते उपादानमां कांई करी शके नहि– आ
वात भेदज्ञाननी छे. स्व अने पर द्रव्यो भिन्न भिन्न छे, एकनी बीजामां नास्ति ज छे तो पछी ते शुं करे? जो
ससलानां शींगडा कोईने असर करे तो निमित्तनी असर परमां थाय; पण जेम ससलानां शींगडानो अभाव
होवाथी ते कोईने असर करतां नथी तेम निमित्तनो परद्रव्यमां अभाव होवाथी निमित्तनी कांई असर परद्रव्यमां
थती ज नथी. आवुं वस्तु स्वभावनुं भेदज्ञान कोई वीरला–सत्य पुरुषार्थी–जीवो ज जाणे छे. उपादान निमित्तनी
स्वतंत्रताने ज्ञानीओ ज जाणे छे; ज्ञानीओ वस्तु स्वभावने जुए छे तेथी तेओ जाणे छे के दरेक वस्तुनी पर्याय ते
वस्तुना पोताना स्वभावथी ज थाय छे, वस्तु स्वभावमां ज पोतानुं कार्य करवानुं सामर्थ्य छे, तेने पर वस्तुना
निमित्तनी जरूर नथी. परंतु अज्ञानीओ वस्तुस्वभावने जाणता नथी तेथी तेओ संयोगोने जोनारा छे, अने वस्तुनुं
कार्य स्वतंत्र थाय छे तेने बदले तेओ संयोगाधीन–निमित्ताधीन कार्य माने छे; आ कारणे तेमने संयोगमां
एकत्वबुद्धि खसती नथी अने स्व–पर भेदज्ञान थतुं नथी. अहीं उपादान अने निमित्तनी स्वतंत्रता बतावीने
भेदज्ञाननो उपाय दर्शावे छे. आखा जगतना घणा जीवो उपादान निमित्तनुं स्वरूप समज्या वगर खीचडो करे छे
के–निमित्तमां कांईक विशिष्टता छे, कोई वार निमित्तनी असर थई जाय छे, कोईवार निमित्तनी मुख्यताथी कार्य
थाय छे आ बधी मान्यता अज्ञान छे. ४.
उपादान बल जहं तहां, नहि निमित्त को दाव,
एक चक्रसौं रथ चले, रवि को यहै स्वभाव. प.
अर्थः– ज्यां जुओ त्यां उपादाननुं ज बळ छे, निमित्तनो दाव नथी अर्थात् निमित्त कांई करतुं नथी; सूर्यनो
एवो ज स्वभाव छे के तेनो रथ एक चक्रथी चाले छे (–तेम वस्तुनो एवो ज स्वभाव छे के एकला उपादाननी
ताकातथी ज कार्य थाय छे).
ज्यां दरेक वस्तु पोतपोताना स्वभावथी ज कार्य करे छे त्यां तेना स्वभावमां परवस्तु शुं करे? दरेक वस्तु
पोतपोताना स्वभावमां ज परिणमी रही छे, कोई वस्तु अन्य वस्तुना भावमां परिणमती नथी. उपादान पोते
पोताना भावमां परिणमे छे अने निमित्त निमित्तना पोताना भावमां परिणमे छे. पोतानी पर्यायनुं कार्य करवामां
दरेक वस्तुनुं उपादान पोते ज बळवान छे, तेमां निमित्तनुं कांई कार्य नथी. आमां द्रष्टांत पण कुदरती वस्तुनुं आप्युं
छे. सूर्यना रथनो एक ज चक्र होय छे, एक चक्रथी ज चालवानो सूर्यनो स्वभाव छे तेम एक स्व वस्तुथी ज कार्य
करवानो वस्तुनो स्वभाव छे.