ः १९४ः आत्मधर्मः खास अंक
स्वतंत्रता त्यां यथार्थता ने यथार्थता त्यां वीतरागता
(वैशाख वद–१२, ता. १७, प, ४७ना रोज पंचास्तिकाय गाथा प८ उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं व्याख्यान)
ज्यां स्वतंत्रता छे त्यां यथार्थता छे अने ज्यां यथार्थता छे त्यां वीतरागता छे.
वस्तु छे, ते स्वतंत्र छे. वस्तुनो स्वभाव ज स्वतंत्र छे जो वस्तु परने आधीन कहो तो तेनी स्वतंत्रता
रहेती नथी, अने तेथी ते वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप नथी, वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप जाण्या वगर ज्ञानमां यथार्थता थती
नथी. अने ज्ञानमां यथार्थता थया वगर वीतरागता थती नथी.
वस्तुनी स्वतंत्रता छे, ते स्वतंत्रताने यथार्थ जाणवानुं फळ वीतरागता छे. वस्तुनी स्वतंत्रता जाणतां
पराधीनभाव टळीने स्वाधीनभाव प्रगटे छे, अने स्वाधीन भाव ते यथार्थभाव छे, यथार्थभाव ते वीतराग
भाव छे.
सौथी पहेलां एम नक्की करवुं जोईए के बधी वस्तु स्वतंत्र छे, हुं स्वतंत्र वस्तु छुं, परथी भिन्न छुं, मारा
भाव हुं स्वतंत्रपणे करुं छुं. आम स्वतंत्रता मानीने, विकारमां पर वस्तु निमित्त छे एम परनुं ज्ञान करे तेमां पण
स्वतंत्रता राखीने ज्ञान करवुं जोईए. रागमां परवस्तु निमित्त छे एटले के मारा त्रिकाळी स्वभावना लक्षे विकार
थतो नथी पण परना लक्षे क्षणिक विकार थाय छे, ते विकार मारो त्रिकाळी स्वभाव नथी.
स्वतंत्रताना भान वडे पहेलां पोताने परथी भिन्न जाण्यो अने पछी विकारथी पण भिन्न पोतानो
स्वभाव जाण्यो. परथी तो भिन्न छुं, अने मारा स्वभावना आश्रये विकारनी उत्पत्ति नथी माटे मारा स्वरूपमां
विकार नथी, एम त्रिकाळी विकाररहित स्वभावने जाण्यो अने तेना आश्रये स्वतंत्र भाव प्रगटयो; ते यथार्थभाव
छे अने ते वीतरागभाव छे.
जो परवस्तु आत्माने विकार करावती होय तो आत्मानी स्वतंत्रता ज न रहे. अने जो परना लक्ष वगर
एकला आत्माना लक्षे विकार थतो होय तो विकार ते आत्मानो स्वभाव ज थई जाय, तो पछी ते विकार कोना लक्षे
टळे? आत्मामां पांच भावो छे ते दरेक स्वतंत्र छे. १– विकारी, २–कांईक विकारी ने कांईक शुद्ध ३–जेमां विकार
दबाई गयो होय अने शुद्धता प्रगट होय एवो, ४–जेमां संपूर्ण शुद्धता प्रगटी छे ने विकारनो क्षय थई गयो छे
एवो अने प–त्रिकाळ एकरूप–एवा पांच प्रकारना भावो आत्मामां छे, तेने क्रमसर औदयिक, क्षायोपशमिक,
औपशमिक, क्षायिक अने पारिणामिकभाव कहेवाय छे. विकारी हो के अविकारी हो–ते दरेकभाव स्वतंत्र छे. जो पांचे
भावमां जीव स्वतंत्रता न माने तो तेना ज्ञानमां यथार्थता थाय नहि अने ज्ञानमां यथार्थता थया वगर स्वभाव
लक्षे परथी खसीने वीतरागता थाय नहि.
आत्मानी पर्यायमां राग थाय अने ते रागने पोतानो स्वभाव माने तो ते ऊंधा भाव करवामां पण
स्वतंत्र छे, राग थाय पण रागरहित शुद्धस्वभाव छे एवुं भान करे तो ते भाव करवामां पण जीव स्वतंत्र छे, राग
मारूं स्वरूप नथी एवा भानपूर्वक रागने डाटे (दाबी दे) तेमां पण जीव स्वतंत्र छे, अने स्वभावना भानपूर्वक
शुद्धता प्रगट करीने रागनो सर्वथा नाश करे तेमां पण जीव स्वतंत्र छे. आवी स्वतंत्रता ते ज यथार्थता छे. ए
स्वतंत्रतामां जराय पराधीनता मानवी ते अयथार्थता छे, अने ए अयथार्थतामां एकलो राग छे पण तेमां
वीतरागता नथी, एटले तेमां पराश्रयभाव छोडीने स्वाश्रय तरफ ढळवानो भाव प्रगटतो नथी.
स्वतंत्रता, यथार्थता ने वीतरागतामां सम्यग्दर्शन ज्ञान–चारित्र आवी जाय छे. वस्तुनी स्वतंत्रता मानवी
ते साची श्रद्धा छे, साची श्रद्धा थतां ज्ञानमां यथार्थता थाय छे, अने तेना फळरूपे वीतरागता प्रगटे छे. पहेलां
आत्माना स्वतंत्र स्वभावनुं भान करतां वीतरागी द्रष्टि प्रगटे छे, वीतरागी द्रष्टि थतां ज्ञान पण वीतरागी थाय छे,
अने पछी ते स्वतंत्र स्वभावमां लीन थता वीतरागी चारित्र प्रगटे छे.
मारा आत्मानी पर्यायमां जे विकार थाय छे ते मारी पर्यायना कारणे थाय छे, परलक्षे विकार थाय छे पण
पर वस्तु विकार करावती नथी, एक समय पूरतो जे स्वतंत्र विकार छे, ते मारा त्रिकाळी स्वभावमां नथी. एम
विकारनुं लक्ष छोडीने स्वभावना लक्षे वीतरागी द्रष्टि थाय छे. पहेलां स्वतंत्रता न समजे तो वीतरागी द्रष्टि थाय
नहि, अने वीतरागी द्रष्टि थया वगर वीतरागी चारित्र प्रगटे नहि.
बधाय परद्रव्योनी अवस्था तेना ज कारणे थाय छे, तेओ बधा स्वतंत्र छे अने हुं पण स्वतंत्र छुं, मारी
अवस्था माराथी थाय छे. आम ज्यां सुधी जीव स्वतंत्रता नक्की न करे त्यांसुधी पर वस्तुना लक्षथी खसीने
स्वभावना लक्ष तरफ ते ढळे नहि अने ज्ञानमां यथार्थता प्रगट थाय नहि. जेने आत्मानी स्वतंत्रता प्रगट करवी
होय तेणे प्रथम वस्तुनी स्वतंत्रता समजवी जोईए.