Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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प्रथमश्रावणः२४७३ः १९७ः
अष्ट प्राभृत प्रवचना
–टूंकसारः लेखांकः ६
(श्री समयसारजी प्रतिष्ठा महोत्सव दिन वैशाख वद ८ वीर सं. २४७२. दर्शन पाहुड गाथा ८)
–आत्मधर्म अंक ४२ थी चालु–
(११७) उपदेशके निःशंकपणे सत्नुं स्थापन अने असत्नुं उथापन करवुं जोईए.
आ अष्टप्राभृतमां दर्शनप्राभृत वंचाय छे; तेमां सम्यग्दर्शननुं स्वरूप वर्णव्युं छे. अनंतकाळथी अज्ञानी
जीवो सम्यग्दर्शनना शरण वगर अनंत–अनंत जन्म–मरण करी चूकया छे; ए जन्म–मरण टाळवानो मूळ उपाय
सम्यग्दर्शन ज छे. जगतना जीवो सम्यग्दर्शननुं साचुं स्वरूप जाणे अने खोटी श्रद्धा तथा खोटी श्रद्धावाळानुं सेवन
छोडे ते माटे आचार्यदेव सम्यग्दर्शननुं स्वरूप बतावे छे. श्री कुंदकुंद भगवान सत्ने स्थापे छे अने असत्ने उथापे
छे. जो एम न करे तो जीवोने सत् कई रीते समजाय? जगतमां एवुं कांई नथी के जे बधायने सारूं लागे...साची
वात कहेतां ठगने ते न रुचे, पण तेथी कांई साची वात कहेनारनो दोष नथी.
सर्वज्ञ वीतरागदेवनी दिव्यवाणीमां वस्तुनुं साचुं स्वरूप कहेवाय छे तेम ज ३६३ पाखंडी मतोनो निषेध पण
आवे छे. वस्तु स्वरूपनी साची ओळखाण आपतां कोईक जीवोने खोटुं लागे तो तेमां कोनो दोष? तेमां सत्य
उपदेशनो दोष नथी. मदिरापाननुं व्यसन खराब छे एम कहीने तेनो निषेध करवामां आवे त्यारे कलालने दुःख
थाय, ब्रह्मचर्यनो उपदेश आपवामां आवे त्यारे वेश्याने दुःख थाय, परंतु तेथी कांई ब्रह्मचर्य वगेरेनो उपदेश
आपवानुं तो बंध न कराय. तेम जगतना जीवोए अनंतकाळथी एक सेकंड मात्र पण सत् सांभळ्‌युं नथी अने
अनेक प्रकारनी ऊंधी मान्यता ज पोषी छे, तेथी ज्यारे ज्ञानीओ सत् स्वरूप समजावीने ऊंधी मान्यताओनो निषेध
करे छे त्यारे केटलाक अज्ञानी जीवोने दुःख थाय छे. परंतु ए दुःख तो तेमने पोतानी ऊंधी मान्यतानुं ज छे. जेओ
अज्ञानी छे तेओ तो अनादिथी पोतानी ऊंधी मान्यता वडे दुःखी ज छे, तेथी सत्यना उपदेशथी तेमने कांई नवुं
नुकशान थवा संभव नथी. अने सत्य सांभळतां ते समजीने जेओ ऊंधी मान्यता छोडे छे तेओने सम्यग्दर्शननो
अपूर्व लाभ थाय छे. तेथी सत्य उपदेश जीवोने लाभनुं ज कारण छे, माटे सत्यनी निःशंकपणे जाहेरात करवी
जोईए.
(११८) सत्ने सत् अने असत्ने असत् कहेवामां राग–द्वेष नथी.
श्री मोक्षमार्ग–प्रकाशकमां सत्य धर्मनुं स्वरूप ओळखाववा माटे खोटी श्रद्धावाळा मतोनुं स्वरूप बतावीने
तेनो निषेध कर्यो छे. अने त्यां प्रश्नोत्तर वडे नीचे मुजब खुलासो कर्यो छे.
प्रश्नः–तमने राग–द्वेष छे तेथी तमे अन्य मतोनो निषेध करी पोताना मतने स्थापन करो छो?
उत्तरः–वस्तुना स्वरूपनुं यथार्थ प्ररूपण करवामां राग–द्वेष नथी, पण पोतानुं कांई प्रयोजन विचारी
अन्यथा प्ररूपण करीए तो राग–द्वेष नाम पामे. साचाने साचुं स्थापतां अने असत्ने असत् स्थापतां जो राग–द्वेष
होय तो वीतराग अर्हंतदेवने पण राग–द्वेष ठरे, केम के तेओश्रीनी वाणीमां पण सत्ने सत् तरीके अने असत्ने
असत् तरीके कहेवाय छे.
(११९) सत् अने असत्ने समान जाणवुं ते साम्यभाव नथी पण अज्ञान छे.
प्रश्नः–जो राग–द्वेष नथी, तो अन्य मत बूरा अने जैनमत भलो एम केवी रीते कहो छो? जो साम्यभाव
होय तो सर्वने समान जाणो, मत पक्ष शा माटे करो छो?
उत्तरः–बूराने बूरो कहीए तथा भलाने भलो कहीए, एमां राग–द्वेष शो कर्यो? बूरा–भलाने समान
जाणवा ए तो अज्ञानभाव छे, पण कांई साम्यभाव नथी. जैनधर्म कोई व्यक्तिने भली–बूरी कहेतो नथी पण
गुणने भला अने अवगुणने बूरा कहे छे. जो गुण–अवगुणनो विवेक न करे तो तो मूढभाव छे.
(१२०) बधा मतोनुं प्रयोजन एक नथी.
प्रश्नः– सर्व मतोनुं प्रयोजन तो एक ज छे, तेथी सर्वने समान जाणवां.
उत्तरः–सर्वेनुं प्रयोजन एक नथी. सर्वेनुं प्रयोजन जो एक ज होय तो जुदा जुदा मत शा माटे कहो छो?
एक मतमां तो एक ज प्रयोजन सहित अनेक प्रकारे व्याख्यान होय छे, जिनमतमां आत्मानुं स्वाधीन परिपूर्ण
स्वरूप बतावीने वीतरागभाव पोषवा