Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः १९८ः आत्मधर्मः खास अंक
माटे अनेक प्रकारे कथन होय छे तेने जुदा जुदा मत कोण कहे छे? परंतु जैनधर्म अने अन्य मतनुं तो प्रयोजन ज
भिन्न भिन्न छे.
(१२१) जैनमत अने अन्य मतोना प्रयोजनमां तफावत
जैनमतमां एक वीतरागभाव पोषवानुं प्रयोजन छे, कथाओमां, लोकादिकना निरूपणमां, आचरणमां के
तत्त्वोमां ज्यां–त्यां वीतरागतानुं ज पोषण कर्युं छे. पण अन्य मतोमां सरागभाव पोषवानुं प्रयोजन होवाथी,
कषायी जीव अनेक युक्ति बनावी कल्पित रचना करी, कषायभावने ज पोषे छे. जेम के कोई सर्वने ब्रह्म मानीने,
कोई सर्व कार्योने प्रकृतिनां ज मानीने अने जीवने सर्वथा शुद्ध अकर्ता मानीने, कोई मात्र तत्त्वोने जाणी लेवाथी ज
सिद्ध मानीने, कोई कषायजनित आचरणने धर्म मानीने, कोई वस्तुने सर्वथा क्षणिक मानीने तथा कोई परलोक
वगेरेने नहि मानीने विषयभोगादिरूप कषाय कार्योमां स्वच्छंदी थवानुं ज पोषण करे छे. जो के तेओ कोई ठेकाण
कोई कषाय घटाडवानुं पण निरूपण करे छे परंतु ए छळवडे कोई ठेकाणे अन्य कषायनुं पोषण करे छे. जेम के–
गृहकार्य छोडीने परमेश्वरनुं भजन करवुं ठराव्युं, पण परमेश्वरनुं स्वरूप ज सरागी मनावीने तेना आश्रये पोताना
विषय कषायने पोषण करे छे. त्यारे जैनधर्ममां देव, गुरु, धर्मादिनुं स्वरूप वीतराग ज निरूपण करीने केवळ
वीतरागताने ज पोषण करे छे, अने ते प्रगट छे.
माटे जेमां वीतराग भावनुं ज प्रयोजन छे एवो जैनमत ज इष्ट छे, पण जेमां सरागभावनुं प्रयोजन
प्रगट कर्युं छे एवा अन्यमतो अनिष्ट छे; ते बन्नेने समान केम मनाय? माटे सत्ने सत् तरीके अने असत्ने
असत् तरीके बराबर ओळखाववुं जोईए.
(१२२) भव्य जीवोना हित माटे सत्नो उपदेश
बराबर देवो जोईए, ऊंधा जीवोने दुःख लागे
ए कारणे सत्ने ढंकाई नहि.
प्रश्नः– ए तो साचुं, परंतु अन्य मतोनी निंदा करतां अथवा तेने खोटा कहेतां अन्यमति दुःख पामे अने
बीजाओनी साथे विरोध थाय, तेथी निंदा शा माटे करो छो?
उत्तरः– जो कषायपूर्वक निंदा करवामां आवे के अन्यने दुःख उपजाववामां आवे तो तो ते दोष ज छे;
पण अहीं तो अन्यमतना श्रद्धानादिक वडे जीवोने अतत्त्वश्रद्धान द्दढ थाय अने तेथी तेओ संसारमां दुःखी थाय,
तेथी करूणाभाव वडे सत्य तत्त्वार्थश्रद्धान कराववा अहीं यथार्थ निरूपण कर्युं छे. छतां कोई दोष विना पण दुःख
पामे, विरोध उपजावे तो तेमां अमे शुं करीए? जेम मदिरानी निंदा करतां कलाल दुःख पामे. कुशीलनी निंदा
करतां वेश्या दुःख पामे तथा साचुं–खोटुं ओळखवानी परीक्षा बतावतां ठग दुःख पामे, तेम सत्य–असत्य
धर्मनो विवेक समजावतां असत् मानवावाळा दुःखी थाय तो तेमां अमे शुं करीए? ए प्रमाणे जो पापी जीवोना
भयथी धर्मोपदेश न आपीए तो जीवोनुं भलुं केम थाय? एवो तो कोई उपदेश नथी के जे वडे सर्व जीवोने चेन
थाय. वळी सत्य कहेतां कोई अज्ञानीओ विरोध उठावे, परंतु विरोध तो परस्पर झगडो करतां थाय; पण अमे
लडीए नहि, तो तेओ पोतानी मेळे ज उपशांत थई जशे, तेमना भावोनुं फळ तेमने मळशे, अमने तो अमारा
परिणामोनुं ज फळ थशे.
(१२३) मिथ्याश्रद्धा छोडवा माटे सत् असत् समजवुं जोईए.
प्रश्नः– प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोनुं अयथार्थ श्रद्धान करतां तो मिथ्यादर्शनादिक थाय छे, पण अन्य मतोनुं
श्रद्धान करतां मिथ्यादर्शनादिक केवी रीते थाय?
उत्तरः– अन्यमतोमां विपरीत युक्ति प्ररूपी छे, जीवादि तत्त्वोनुं स्वरूप यथार्थ न भासे तेवा उपाय कर्या छे,
ते शा माटे कर्या छे? ते अन्य मतोनुं श्रद्धान करवाथी जीवादि तत्त्वोनुं स्वरूप पण अन्यथा भासे छे अने तेथी
मिथ्यात्वादिक ज थाय छे. जो जीवादि तत्त्वोनुं यथार्थ स्वरूप भासे तो, वीतरागभाव थतां ज महंतपणुं देखाय; पण
जे जीवो वीतरागी नथी अने पोतानी महंतता इच्छे छे तेओ, सरागभाव होवा छतां पोतानी महंतता मनाववा
माटे कल्पित युक्ति वडे अन्यथा निरूपण करे छे. तेथी अयथार्थ श्रद्धा छोडाववा माटे अन्यमतोनुं अयथार्थपणुं प्रगट
जणाव्युं छे. जो अन्यमतोनुं अयथार्थपणुं भासे अने जिनमतनुं यथार्थपणुं भासे तो तत्त्वश्रद्धानमां रुचिवान् थाय
अने तेने साची श्रद्धा वडे सम्यग्दर्शन प्रगटे. ए सम्यग्दर्शन ज धर्मनुं मूळ छे. सम्यग्दर्शन वगर धर्म होतो नथी. ए
माटे श्री कुंदकुंदाचार्यदेव आ दर्शन प्राभृतमां सम्यग्दर्शननुं साचुं स्वरूप अने महिमा समजावे छे. अत्यारे