Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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प्रथमश्रावणः२४७३ः १९९ः
आठमी गाथा चाले छे, तेमां कहे छे के सम्यग्दर्शनथी जे भ्रष्ट छे एवा जीवोनी संगति पण धर्मबुद्धिए करवा योग्य
नथी. जे सम्यग्दर्शनथी भ्रष्ट छे ते धर्मथी ज भ्रष्ट छे, अने जे पोते ज धर्मथी भ्रष्ट छे ते अन्यने धर्मनुं कारण कई
रीते थाय? माटे तेवा जीवोनी संगति योग्य नथी.
जिनमतना निश्चय श्रद्धा–ज्ञान चारित्रथी तो जे भ्रष्ट छे परंतु व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रथी पण जे भ्रष्ट
छे ते तो निरर्गल स्वेच्छाचारी छे. जे रीते ते पोते भ्रष्ट छे ते रीते अन्य लोकोने पण उपदेशादिक वडे भ्रष्ट करे छे
तथा ते जीवनी प्रवृत्ति देखीने लोको स्वयमेव भ्रष्ट थाय छे; माटे एवा तीव्र कषायी जीव निषेध योग्य छे, तेनी
संगति करवी पण उचित नथी.
आ वात आजनी नथी, लोकोने आवी स्पष्ट वात आजे सांभळवा मळे एटले तेमने नवुं लागे छे. पण
आ मूळ सूत्रो तो बे हजार वर्ष पहेलां कुंदकुंदाचार्यदेव रची गया छे, अने तेना आशयने जयचंद्रजी पंडिते दोढसो
वर्ष पहेलां भावार्थ द्वारा स्पष्ट कर्यो छे. ए ज आजे वंचाय छे. जे मूळ सत्य छे ते समजाव्युं छे. लोकोए मध्यस्थपणे
अभ्यास करीने निर्णय करवो जोईए. ज्यां सुधी सत्–असत्नो निर्णय स्वयं न करे त्यां सुधी धर्म कई रीते थाय?
(१२४) असत्नुं सेवन छोडवुं जोईए
बहारमां राग–द्वेष–कषायनी घणी मंदता होवा छतां जेनी प्ररूपणा श्री वीतराग जिनमार्गथी विरुद्ध छे
तेमने काळा नाग जेवा जाणीने छोडवा जेवा छे. नागना निमित्ते तो एक भवमां मरण थाय पण सत् अने
स्वतंत्रताने नहि माननारा अने नहि बतावनारा एवा कुगुरु वगेरेना निमित्ते मिथ्यात्वभावनी पुष्टि थतां अनंत
भवमां मरण थाय छे. बाह्यमां मुनि हो, त्यागी हो के व्रतधारी भले हो पण जेओने अंतरमां आत्मानी स्वतंत्रतानुं
भान न होय, अने आत्मानी स्वतंत्रता न बतावे तेनी पासे धर्म नथी, ते धर्मनुं स्थान नथी. त्रणेकाळना दरेक
समयनी पर्यायमां आत्मा समजण करीने वीतरागता करवा स्वतंत्र छे, तेम ज विकार करे तेमां पण ते स्वतंत्र छे
एवी भेदविज्ञानरूपी प्ररूपणाने बदले, परद्रव्यथी आत्माने कांई थाय एम स्व–परनुं एकत्व मनावे ते मिथ्याद्रष्टि
छे. कोई परद्रव्यनी निंदाना हेतुथी आ कह्युं नथी, पण जो जीवने पोतामां आवो ऊंधो भाव होय तो ते टाळवो
जोईए–ए माटे कथन छे. परद्रव्यना दोष एनी पासे रह्या, परंतु ए दोषने दोष तरीके जाणीने पोतामां ते दोष होय
तो छोडी देवा जोईए. पोतानुं हित करवा माटे आ वात समजवानी जरूर छे. ज्ञानीओ जो सत्य–असत्यने न
समजावे तो सत्य–असत्यनो विवेक जिज्ञासुओने केम थाय? सत्नो सत् तरीके अने असत्नो असत् तरीके स्वीकार
करतां पण जेने भय लागे छे ते जीव असत् छोडीने सत्यनुं ग्रहण शी रीते करशे? बोकडा कापनार कषाईने मांसनी
निंदा सांभळीने खराब लागे, तेमां कोई शुं करे? तेम अनंत जन्म–मरणनुं कारण जे मिथ्यात्वभाव तेना सेवननो
ज्ञानीओ तद्न निषेध करे त्यारे अज्ञानी कुगुरुओने ते न रुचे, तेमां कोई शुं करे? ज्ञानीओ तो कहे छे के ए पण
स्वतंत्र छे. एनी भूल ए पोते टाळे तो टळे. ऊंधाईमां पण स्वतंत्र छे, तीर्थंकरो पण एनी ऊंधाईने छोडाववा
समर्थ नथी, अने एक क्षणमात्रमां ऊंधाई टाळीने सवळुं समजी शके–एमां पण ते स्वतंत्र छे.
(१२प) अधर्मी पासेथी धर्मनी प्राप्ति थाय नहि
आचार्यदेव कहे छे के जेमना आत्मामां प्रगटपणे सम्यग्दर्शन छे ते ज जीवो धर्मी छे. ए सम्यग्दर्शनथी जेओ
भ्रष्ट छे तेवा जीवोनी संगति धर्मबुद्धिए करवी उचित नथी. स्वतंत्र वस्तुनो कर्ता बीजाने माने, राग वडे धर्म
मनावे एवा जीवोना संगमां सत्धर्मनी प्राप्ति नथी. कांई पण द्रव्य तो आ जीवने नुकशान करतां नथी. पण असत्
निमित्तोनो संग करवानो पोतानो भाव ज नुकशान करे छे. जेने असत् निमित्तोना संगनी रुचि छे तेने असत्नी
रुचि छे. ए असत् तरफनो भाव छोडाववा माटे ते निमित्तोनो संग छोडवानुं कह्युं छे.
(१२६) मिथ्याद्रष्टि जीवोनी मान्यताना केटलाक कारणो
श्री जिनेन्द्र देवनी वीतरागी प्रतिमा ए पण धर्मनुं निमित्त छे, ए धर्मना निमित्तने जेणे उथाप्युं तेणे
खरेखर पोताना आत्माना धर्मने ज उथाप्यो छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. जेओ वीतरागी प्रतिमाने न माने अने तेमनी
भक्ति, पूजा, दर्शन वगेरेमां पाप मनावे ते बधा महा मिथ्याद्रष्टि छे, तेओ जैन नामने पण लायक नथी. अने बीजा
कोई भगवाननी वीतरागी प्रतिमाने वस्त्र–मुगट वगेरे रागना चिह्नो सहित मानीने रागरूप माने तथा तेमनी
भक्ति–पूजा वगेरेना शुभरागथी धर्म