व्यवहार होय छे, ए मान्यतामां निश्चय स्वभावना आश्रयनुं जोर आव्युं अने व्यवहार गौणपणे साथे रह्यो ए ज
सम्यग्दर्शन थाय नहि अने भवनो अंत आवे नहि. नवमी ग्रैवेयके जनारा साधु आगमना बधाय व्यवहार
कथनोने द्रढपणे पकडता होय, अने निश्चयना कथनोने जाणे खरा पण ते तरफ अंतरथी आदर भाव न करे, तेथी
पराश्रित व्यवहारमां ज अटकी जाय छे. चिदानंद आत्माना आश्रय वगरनी जे आगम अनुसारिणी बुद्धि छे तेने
व्यभिचारिणी बुद्धि कही छे. ‘शास्त्रमां साचा देव, गुरु, धर्मनुं स्वरूप आम कह्युं छे अने रागथी धर्म न थाय एम
कह्युं छे, एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई न करी शके एम कह्युं छे–इत्यादि प्रकारे एकला शास्त्रथी माने छे, ते पण
पराश्रित बुद्धि छे. ‘शास्त्रमां कह्युं छे’ तेथी माने छे परंतु वस्तु स्वभाव ज एवो छे एम पोताना श्रद्धा–ज्ञानमां
लावीने ते स्वाश्रये मानतो नथी. परमां तो जेनी बुद्धि रोकाई रहे छे पण स्वतंत्र चैतन्य स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान
केम के ते पण पराश्रय छे. नवमी ग्रैवेयक जनार अभव्य जीवने साचा देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धामां तो रंचमात्र फेर
न होय अने बाह्य क्रिया एवी करे के अत्यारे आ भरत क्षेत्रमां तेवी क्रिया कोईने न होय. पण ए बधोय पराश्रित
भाव छे, स्वाश्रयभावे आत्मानी श्रद्धा विना ते कोई भावथी कल्याण नथी धर्म नथी. अने स्वाश्रित आत्माना
अनुभवसहित श्रद्धा–ज्ञानवडे एकावतारी थनार जीवो गृहस्थाश्रममां पण अत्यारे होय छे. त्याग, व्रत, वगेरे न
होवा छतां सम्यग्दर्शनना जोरे ते एकावतारी थाय छे. तेथी सम्यग्दर्शननुं अपार माहात्म्य छे, ते परिपूर्ण स्वाश्रित
छे. ते वगर क्रियाकांडथी धर्म थतो नथी. त्यारे वीतरागी देव, गुरु, शास्त्रोनो विरोध करीने जेओ बहारनी क्रियाथी
गुरु, शास्त्रनी ओळखाण पूर्वक एवी श्रद्धा होय के आखुं जगत विरुद्ध थई जाय तो पण देव, गुरु, शास्त्रनी श्रद्धाथी
च्युत न थाय, प्राण जाय पण बीजाने माने नहि. जगतने रूडुं लगाडवा तो अनंतकाळथी प्रयत्न कर्यो छे पण
आत्मानी दरकार अनंत काळथी करी नथी. जगतने सारूं लागे के माठुं लागे, आखी दुनिया फरी जाय पण सम्यग्द्रष्टि
जीवनी श्रद्धा फरे नहि; तेनुं सम्यग्दर्शन ए कांई कोई पारका आश्रये प्रगटयुं नथी. पण पोताना त्रिकाळी स्वभावना
आश्रये ज प्रगटयुं छे.