Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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प्रथमश्रावणः२४७३ः २०१ः
व्यवहार होय छे, ए मान्यतामां निश्चय स्वभावना आश्रयनुं जोर आव्युं अने व्यवहार गौणपणे साथे रह्यो ए ज
सम्यग्ज्ञानीनी मान्यता छे.
(१२९) व्यभिचारिणी बुद्धि
स्वाश्रय वडे पोताना निश्चय स्वभावना भान वगर साचा देव, गुरु, शास्त्रने जीव अनंतवार मानी चूकयो
छे, परंतु ए तो बधो पराश्रय छे. एकवार स्वाश्रित वलणवडे बधा पराश्रयने लक्षमांथी न छोडे त्यां सुधी
सम्यग्दर्शन थाय नहि अने भवनो अंत आवे नहि. नवमी ग्रैवेयके जनारा साधु आगमना बधाय व्यवहार
कथनोने द्रढपणे पकडता होय, अने निश्चयना कथनोने जाणे खरा पण ते तरफ अंतरथी आदर भाव न करे, तेथी
पराश्रित व्यवहारमां ज अटकी जाय छे. चिदानंद आत्माना आश्रय वगरनी जे आगम अनुसारिणी बुद्धि छे तेने
व्यभिचारिणी बुद्धि कही छे. ‘शास्त्रमां साचा देव, गुरु, धर्मनुं स्वरूप आम कह्युं छे अने रागथी धर्म न थाय एम
कह्युं छे, एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई न करी शके एम कह्युं छे–इत्यादि प्रकारे एकला शास्त्रथी माने छे, ते पण
पराश्रित बुद्धि छे. ‘शास्त्रमां कह्युं छे’ तेथी माने छे परंतु वस्तु स्वभाव ज एवो छे एम पोताना श्रद्धा–ज्ञानमां
लावीने ते स्वाश्रये मानतो नथी. परमां तो जेनी बुद्धि रोकाई रहे छे पण स्वतंत्र चैतन्य स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान
करवामां जेनी बुद्धि स्वाश्रये वळती नथी तेओ व्यवहारनी कुथलीमां पडेला व्यभिचारिणी बुद्धिवाळा छे.
(१३०) स्वाश्रितभाव अने पराश्रितभाव
कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रना आश्रये तो अधर्म छे, अधर्मनुं सेवन छोडीने धर्मसन्मुख थनार जीवने कुदेवादिनी
श्रद्धा छूटीने साचा देव–गुरु–धर्मनी श्रद्धा थाय परंतु एटलाथी धर्म नथी, देव–गुरु–शास्त्रना आश्रये पण धर्म नथी,
केम के ते पण पराश्रय छे. नवमी ग्रैवेयक जनार अभव्य जीवने साचा देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धामां तो रंचमात्र फेर
न होय अने बाह्य क्रिया एवी करे के अत्यारे आ भरत क्षेत्रमां तेवी क्रिया कोईने न होय. पण ए बधोय पराश्रित
भाव छे, स्वाश्रयभावे आत्मानी श्रद्धा विना ते कोई भावथी कल्याण नथी धर्म नथी. अने स्वाश्रित आत्माना
अनुभवसहित श्रद्धा–ज्ञानवडे एकावतारी थनार जीवो गृहस्थाश्रममां पण अत्यारे होय छे. त्याग, व्रत, वगेरे न
होवा छतां सम्यग्दर्शनना जोरे ते एकावतारी थाय छे. तेथी सम्यग्दर्शननुं अपार माहात्म्य छे, ते परिपूर्ण स्वाश्रित
स्वभावने ज स्वीकारे छे.
(१३१) बहारनी क्रियाथी अने विकारथी धर्म मनावे ते वीतरागदेवना विरोधी छे
जेओ जैन नाम धरावे छे पण तत्त्वथी भ्रष्ट थया छे अने देव, गुरु, शास्त्रने अन्यथा मानवा लाग्या छे
तेमनी पण संगति करवी नहि. वीतरागी देव, गुरु, शास्त्रो कहे छे के पोताना आत्मस्वभावनी समजणथी धर्म थाय
छे. ते वगर क्रियाकांडथी धर्म थतो नथी. त्यारे वीतरागी देव, गुरु, शास्त्रोनो विरोध करीने जेओ बहारनी क्रियाथी
अने विकारथी छडे चोक धर्म मनावी रह्या होय ते जिनमार्गथी भ्रष्ट समजवा.
(१३२) सम्यग्दर्शननो महिमा
श्रेणिक राजाने व्रत, पडिमा के त्याग कंई न हतुं छतां अंतरंगमां सम्यग्दर्शन हतुं, रागना एक अंशने पण
पोतानो मानता न हता; एक सम्यग्दर्शनना जोरे गृहस्थावस्थामां पण एकावतारीपणुं प्रगट कर्युं अने तीर्थंकरगोत्र
बांध्युं, अल्प काळमां तेओ जगत्गुरु तीर्थंकर थशे. आ बधो सम्यग्दर्शननो महिमा छे.
(१३३) आखी दुनिया फरी जाय पण सम्यग्द्रष्टिनी श्रद्धा फरे नहि
धर्म करवा माटे सौथी प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं जोईए. सम्यग्दर्शन ज आत्म कल्याणकारी छे. ए
सम्यग्दर्शनने जाळवतां आखी दुनिया वेचवी पडे तो वेचाय, पण साची श्रद्धा छोडाय नहि. प्रथम तो साचा देव,
गुरु, शास्त्रनी ओळखाण पूर्वक एवी श्रद्धा होय के आखुं जगत विरुद्ध थई जाय तो पण देव, गुरु, शास्त्रनी श्रद्धाथी
च्युत न थाय, प्राण जाय पण बीजाने माने नहि. जगतने रूडुं लगाडवा तो अनंतकाळथी प्रयत्न कर्यो छे पण
आत्मानी दरकार अनंत काळथी करी नथी. जगतने सारूं लागे के माठुं लागे, आखी दुनिया फरी जाय पण सम्यग्द्रष्टि
जीवनी श्रद्धा फरे नहि; तेनुं सम्यग्दर्शन ए कांई कोई पारका आश्रये प्रगटयुं नथी. पण पोताना त्रिकाळी स्वभावना
आश्रये ज प्रगटयुं छे.
।। ।।
–(गाथा ९)–
(१३४) पापी जीवो शुं करे छे?
अष्ट पाहुड शास्त्रमां दर्शनप्राभृतनी आठ गाथा पूरी थई; हवे नवमी गाथामां कहे छे के–जे पोते