धर्मथी भ्रष्ट छे ते जीव धर्मात्माओनी पण निंदा करीने तेमने भ्रष्ट कहे छे. पापी जीवोनो एवो ज स्वभाव छे के
पोतानुं अभिमान पोषवा माटे, जे प्रकारे पोते पापी छे ते प्रकारे धर्मात्माओमां पण दोष लगाडीने पोता समान
करवा चाहे छे; एवा पापी जीवोनी संगति करवी नहि.
हजार वर्ष पहेलां श्री कुंदकुंदप्रभु थया ते वखते पण नवा नीकळेला पंथवाळाओ मुनि धर्मात्माओनो अनादर करता
हता. संत–मुनिओ तो पोताना स्वभावनुं साधन करनारा हता. परंतु जेओ स्वभावने न समजी शक्या अने बाह्य
द्रव्यलिंगथी पण मुनिपणुं न पाळी शक्या तेओए भ्रष्ट थईने ज्ञानीओनी अने अनादि जैनधर्मनी विरुद्ध प्ररूपणा
करी. “आ लोको तो वस्त्र सहित मुनिपणुं मानता नथी, पण भगवानने य वस्त्र हतुं, वळी शरीरनी क्रियामां धर्म
मनावता नथी” इत्यादि प्रकारे कहीने भ्रष्ट थया अने चोराशीमां रखडया. ए वखते कुंदकुंदभगवाने सनातन
जैनधर्मना सिद्धांत स्पष्टपणे रच्या, अने सत्ने सत् तरीके स्थाप्युं, तथा असत्ने उथाप्युं. जो एम न करे तो लोको
भ्रममां पडी जाय अने सत्–असत्ने समजी शके नहि. माटे कुंदकुंद भगवाने शासनने टकावीने भव्य जीवो पर
महान उपकार कर्यो छे.
रागरहित स्वभावने साधवानो छे, अने एवी साधकदशामां वस्त्र होतां ज नथी; केमके अतीन्द्रिय– अशरीरी चैतन्य
स्वभावनी ऊग्र साधनामां–शरीर उपरनो राग टळी गयो छे, तेथी वस्त्रादिवडे शरीर ढांकवानी वृत्ति रही नथी,
शरीर अर्थे कोईपण जातनो परिग्रह राखता नथी.
करी, सत्य उथापीने असत्य स्थाप्युं. एवा जीवोनी द्रष्टिमां धर्मात्माओ साचा न ज लागे. तेओ चारित्रथी तो भ्रष्ट
थया अने साचा श्रद्धा–ज्ञानथी पण भ्रष्ट थया. भले, चारित्र न पाळी शक्या पण जो यथार्थ मार्गनी श्रद्धा–तथा
ज्ञान टकावी राख्युं होत तोपण अल्पकाळे ऊगारो थात. पण द्रष्टिनी ज ऊंधाईथी आखो मार्ग ज ऊंधी रीते मान्यो.
मुक्ति पामशे. पण परमार्थ स्वभावना श्रद्धा–ज्ञानथी जे भ्रष्ट छे तेनो तो अनंतकाळे ऊगारो नथी. कषाय होवा
छतां
रह्यो छे, स्वरूप स्थिरतावडे मुनिदशा प्रगट करूं तो राग न रहे अने रागना निमित्त तरीके वस्त्रादिनो संयोग पण
न रहे. तो ए धर्मात्माने चारित्रनो दोष होवा छतां श्रद्धा–ज्ञान साचा छे–ते मोक्ष मार्गसन्मुख छे. परंतु जे वस्त्र
राखीने एम मनावे के आ वस्त्र होवा छतां अमे मुनि छीए, तो एम माननार श्रद्धा–ज्ञानथी ज भ्रष्ट छे, ते
मोक्षमार्गथी ज भ्रष्ट छे.
अज्ञानीओए दोषनां आरोपण कर्या छे. अ रे रे!