Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २०२ः आत्मधर्मः खास अंक
धर्मथी भ्रष्ट छे ते जीव धर्मात्माओनी पण निंदा करीने तेमने भ्रष्ट कहे छे. पापी जीवोनो एवो ज स्वभाव छे के
पोतानुं अभिमान पोषवा माटे, जे प्रकारे पोते पापी छे ते प्रकारे धर्मात्माओमां पण दोष लगाडीने पोता समान
करवा चाहे छे; एवा पापी जीवोनी संगति करवी नहि.
(१३प) संतोनी निंदा अने कुंदकुंद भगवाननो उपकार
सनातन जैनमार्गमां मुनिओ निर्ग्रंथ ज होय छे. सनातन जैनमार्गथी च्युत थईने जे नवा अन्य पंथो
नीकळ्‌या तेओए मुनिदशा वगेरेनुं स्वरूप अन्यथा मनावीने सनातन निर्ग्रंथ संतमुनिओनी निंदा करी हती. बे
हजार वर्ष पहेलां श्री कुंदकुंदप्रभु थया ते वखते पण नवा नीकळेला पंथवाळाओ मुनि धर्मात्माओनो अनादर करता
हता. संत–मुनिओ तो पोताना स्वभावनुं साधन करनारा हता. परंतु जेओ स्वभावने न समजी शक्या अने बाह्य
द्रव्यलिंगथी पण मुनिपणुं न पाळी शक्या तेओए भ्रष्ट थईने ज्ञानीओनी अने अनादि जैनधर्मनी विरुद्ध प्ररूपणा
करी. “आ लोको तो वस्त्र सहित मुनिपणुं मानता नथी, पण भगवानने य वस्त्र हतुं, वळी शरीरनी क्रियामां धर्म
मनावता नथी” इत्यादि प्रकारे कहीने भ्रष्ट थया अने चोराशीमां रखडया. ए वखते कुंदकुंदभगवाने सनातन
जैनधर्मना सिद्धांत स्पष्टपणे रच्या, अने सत्ने सत् तरीके स्थाप्युं, तथा असत्ने उथाप्युं. जो एम न करे तो लोको
भ्रममां पडी जाय अने सत्–असत्ने समजी शके नहि. माटे कुंदकुंद भगवाने शासनने टकावीने भव्य जीवो पर
महान उपकार कर्यो छे.
(१३६) संतोनो स्वभाव
आत्मा जाणनार छे, जे विकार देखाय छे ते तो क्षणिक छे, ते जाणनार स्वरूपमां नथी. राग घटाडी शकाय
छे. ते रागने घटाडनारी वस्तुमां तद्न राग नथी. एवा स्वभावना भानमां अने लीनतामां संतोनो स्वभाव ज
रागरहित स्वभावने साधवानो छे, अने एवी साधकदशामां वस्त्र होतां ज नथी; केमके अतीन्द्रिय– अशरीरी चैतन्य
स्वभावनी ऊग्र साधनामां–शरीर उपरनो राग टळी गयो छे, तेथी वस्त्रादिवडे शरीर ढांकवानी वृत्ति रही नथी,
शरीर अर्थे कोईपण जातनो परिग्रह राखता नथी.
(१३७) चारित्रनी भूल अने श्रद्धानी भूल
परंतु जेओ एवी रागरहित स्वभावदशा न साधी शक्या अने ‘अमे मुनि छीए’ एवो अहंकार न छोडी
शक्या तेओए वस्त्र धारण करीने मुनिपणुं मनाव्युं, ए रीते बे पंथ पडी जतां खोटाओए सत्य ज्ञानीओनी निंदा
करी, सत्य उथापीने असत्य स्थाप्युं. एवा जीवोनी द्रष्टिमां धर्मात्माओ साचा न ज लागे. तेओ चारित्रथी तो भ्रष्ट
थया अने साचा श्रद्धा–ज्ञानथी पण भ्रष्ट थया. भले, चारित्र न पाळी शक्या पण जो यथार्थ मार्गनी श्रद्धा–तथा
ज्ञान टकावी राख्युं होत तोपण अल्पकाळे ऊगारो थात. पण द्रष्टिनी ज ऊंधाईथी आखो मार्ग ज ऊंधी रीते मान्यो.
चारित्रनी भूल पालवशे पण श्रद्धा–ज्ञाननी भूल नहि पालवे अर्थात् श्रद्धा–ज्ञान साचा टकावी राखे पण
चारित्र न पाळी शके तो तेथी ते कांई धर्मथी भ्रष्ट नथी. श्रद्धा ज्ञानना जोरे अल्पकाळमां चारित्र पूरुं करीने ते तो
मुक्ति पामशे. पण परमार्थ स्वभावना श्रद्धा–ज्ञानथी जे भ्रष्ट छे तेनो तो अनंतकाळे ऊगारो नथी. कषाय होवा
छतां
सम्यग्दर्शनने टकावी राखे तो अल्पकाळमां मुक्त थशे, अने मंदकषाय होवा छतां जो सम्यग्दर्शन नथी तो
तेनुं क्यांय कल्याण नथी.
वस्त्र होय ते जुदी वात छे अने वस्त्रसहित मुनिदशा मानवी ते जुदी वात छे. धर्मात्माओने पण वस्त्र तो
होय पण तेओ एम माने छे के हजी मने मुनिदशा नथी, राग छे तेथी निमित्तपणे आ वस्त्रनो संयोग तेना कारणे
रह्यो छे, स्वरूप स्थिरतावडे मुनिदशा प्रगट करूं तो राग न रहे अने रागना निमित्त तरीके वस्त्रादिनो संयोग पण
न रहे. तो ए धर्मात्माने चारित्रनो दोष होवा छतां श्रद्धा–ज्ञान साचा छे–ते मोक्ष मार्गसन्मुख छे. परंतु जे वस्त्र
राखीने एम मनावे के आ वस्त्र होवा छतां अमे मुनि छीए, तो एम माननार श्रद्धा–ज्ञानथी ज भ्रष्ट छे, ते
मोक्षमार्गथी ज भ्रष्ट छे.
(१३८) वीतरागी संतोनी निंदा करवी ते पाप छे.
चैतन्य स्वभावना श्रद्धा–ज्ञानसहित जेओ स्वरूप–साधनामां तत्पर छे, छकाय जीवोनी रक्षा स्वरूपना
भान सहित सहजपणे करे छे, स्वरूपनी एकाग्रता वडे बार प्रकारना तप आचरे छे–एवा धर्मात्मा संत जीवो उपर
अज्ञानीओए दोषनां आरोपण कर्या छे. अ रे रे!