धर्म साधनारा धर्मात्माओने श्रद्धा भ्रष्ट कहे, तेमना पवित्र चारित्र उपर जुठ्ठा कलंक लगावे, तेमने शासनना वेरी
कहे अने तेमनी कल्याणकारी पवित्र वाणीने आगमथी विरुद्ध कहीने तेमनो अनादर करे–एवा जीवो महा पाप करे
छे, तेओ सत्नो बेहद अनादर करी रह्या छे. पापी जीवोनो स्वभाव ज एवो छे के पोते तो साची श्रद्धा–ज्ञान करे
नहि अने ज्ञानीओने पण खोटा कहीने पोतानी समान बनाववा चाहे, एवा पापीओनी संगति पण करवी नहि.
छाश लेवा जाय अने दोणी न संताडाय ए कहेवतनी जेम, धर्म करनारे सत्ने न छूपावाय अने असत्ने न चलावी
लेवाय. जो सत् असत्नो विवेक न करे अथवा तो सत् स्वीकारतां भय लागे तो तेनुं ज्ञान साचुं नथी, अने साचुं
ज्ञान थया वगर धर्म होई शके नहि.
उत्तरः– सत्ने सत् अने असत्ने असत् मानवुं तेमां राग–द्वेष शेनो? सत्–असत्नो निर्णय तो
वखते तेमना उपदेशनो विरोध करनारा पण हता, तेथी शुं सत्ने छूपावाय? अथवा तो तेने अन्यथा कहेवाय?
खावामां कांकरो आवे तो तेने झट काढी नाखे छे, त्यां राग–द्वेष केम नथी मानतो? खोराक खाय पण कांकरा न
खाय, ते खावानो विवेक छे. तेम साचां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रने ज ग्रहण करवां पण ऊंधी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रने
ग्रहण न करवा ते राग–द्वेष नथी पण धर्मनो विवेक छे.
हता त्यारे तेमने कृत्रिम–अकृत्रिम सर्व जिनमंदिरोना दर्शन करवानी भावना जागी हती. पोते तो धर्मात्मा छे अने
गर्भमां आवनारा जीव पण अनंगलवण अने मदनांकुश जेवा बे धर्मात्माओ छे, बन्ने ते भवे ज मोक्ष जवाना छे.
तेथी धर्मात्माने भावना ज धर्मनी होय...पण जेने साचा धर्मनुं भान नथी, धर्मात्माओनो आदर नथी अने ऊलटो
तेनी निंदा करे छे तेने धर्मना विचार पण क्यांथी आवे? भले पोते हजी धर्म न पाम्यो होय परंतु धर्मात्माओनुं
अने सत्नुं बहुमान तथा विनय लावीने जे समजवा मागे छे ते पण धर्म पामवाने पात्र छे. परंतु जे पोते धर्म
समज्यो नथी, धर्मात्माओनो तथा सत्नो विनय के बहुमान पण नथी ते तो धर्म पामवा माटे पात्र पण नथी.
छे तेने धर्मनी उत्पत्ति थती नथी, चारित्ररूपी फूल अने मोक्षरूपी फळ तेने प्राप्त थतुं नथी.
तो तेने तत्त्वनी यथार्थ श्रद्धा नथी अने तेना आत्माने धर्मनो लाभ किंचित् नथी, आत्माना कल्याणनो मार्ग तेणे
जाण्यो नथी.