Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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प्रथमश्रावणः२४७३ः २०३ः
धर्म साधनारा धर्मात्माओने श्रद्धा भ्रष्ट कहे, तेमना पवित्र चारित्र उपर जुठ्ठा कलंक लगावे, तेमने शासनना वेरी
कहे अने तेमनी कल्याणकारी पवित्र वाणीने आगमथी विरुद्ध कहीने तेमनो अनादर करे–एवा जीवो महा पाप करे
छे, तेओ सत्नो बेहद अनादर करी रह्या छे. पापी जीवोनो स्वभाव ज एवो छे के पोते तो साची श्रद्धा–ज्ञान करे
नहि अने ज्ञानीओने पण खोटा कहीने पोतानी समान बनाववा चाहे, एवा पापीओनी संगति पण करवी नहि.
(१३९) सम्यग्ज्ञान खातर निर्भयपणे सत्–असत्नो निर्णय करवो जोईए.
भाई! जेने धर्म करवो छे तेने सत्य–असत्यनो विवेक कर्या वगर केम चालशे? सामी व्यक्तिना दोष ते
व्यक्ति पासे रह्या, परंतु जीवे पोताना ज्ञानने निर्दोष करवा माटे सत्–असत्नी बराबर परीक्षा करवी जोईए.
छाश लेवा जाय अने दोणी न संताडाय ए कहेवतनी जेम, धर्म करनारे सत्ने न छूपावाय अने असत्ने न चलावी
लेवाय. जो सत् असत्नो विवेक न करे अथवा तो सत् स्वीकारतां भय लागे तो तेनुं ज्ञान साचुं नथी, अने साचुं
ज्ञान थया वगर धर्म होई शके नहि.
(१४०) सत्–असत्नो निर्णय ते रागद्वेषनुं कारण नथी.
प्रश्नः– जो आवी स्पष्ट वात मानीए तो राग–द्वेष वधी पडशे?
उत्तरः– सत्ने सत् अने असत्ने असत् मानवुं तेमां राग–द्वेष शेनो? सत्–असत्नो निर्णय तो
सम्यग्ज्ञान अने वीतरागतानुं कारण छे. कोई जीवो द्वेष करे तो तेना भाव तेनी पासे रह्या. तीर्थंकरोनी हैयाति
वखते तेमना उपदेशनो विरोध करनारा पण हता, तेथी शुं सत्ने छूपावाय? अथवा तो तेने अन्यथा कहेवाय?
खावामां कांकरो आवे तो तेने झट काढी नाखे छे, त्यां राग–द्वेष केम नथी मानतो? खोराक खाय पण कांकरा न
खाय, ते खावानो विवेक छे. तेम साचां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रने ज ग्रहण करवां पण ऊंधी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रने
ग्रहण न करवा ते राग–द्वेष नथी पण धर्मनो विवेक छे.
(१४१) धर्मात्मानी भावना केवी होय? तथा पात्र–अपात्रनुं लक्षण
मूर्ख स्त्रीओ ज्यारे गर्भवती थाय त्यारे तेओने पत्थरा अने माटी खावानी इच्छा थाय छे, पण धर्मात्मा
सति स्त्रीओने तो तेवा प्रसंगे धर्मना उत्तम कोड ऊठे छे. सति सीता धर्मात्मा हता, तेओ ज्यारे सगर्भावस्थामां
हता त्यारे तेमने कृत्रिम–अकृत्रिम सर्व जिनमंदिरोना दर्शन करवानी भावना जागी हती. पोते तो धर्मात्मा छे अने
गर्भमां आवनारा जीव पण अनंगलवण अने मदनांकुश जेवा बे धर्मात्माओ छे, बन्ने ते भवे ज मोक्ष जवाना छे.
तेथी धर्मात्माने भावना ज धर्मनी होय...पण जेने साचा धर्मनुं भान नथी, धर्मात्माओनो आदर नथी अने ऊलटो
तेनी निंदा करे छे तेने धर्मना विचार पण क्यांथी आवे? भले पोते हजी धर्म न पाम्यो होय परंतु धर्मात्माओनुं
अने सत्नुं बहुमान तथा विनय लावीने जे समजवा मागे छे ते पण धर्म पामवाने पात्र छे. परंतु जे पोते धर्म
समज्यो नथी, धर्मात्माओनो तथा सत्नो विनय के बहुमान पण नथी ते तो धर्म पामवा माटे पात्र पण नथी.
(१४२) जेने सम्यग्दर्शन नथी तेने धर्म नथी
जे जीव पोते सम्यग्दर्शनथी भ्रष्ट छे अने धर्मात्माओने आळ चढावे छे ते पापी ज छे, तेने धर्म नथी. जेने
सम्यग्दर्शन ज नथी तेनुं धर्मनुं मूळ सडेलुं छे, तेने कोई जातनां फळनी प्राप्ति नथी, पण तेने संसार ज छे. ।। ।।
अहीं नवमी गाथा पूरी थई.
–(गाथा १०)–
(१४३) धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन
हवे दसमी गाथामां कहे छे के–जेनुं मूळियुं नष्ट थई गयुं होय ते झाडने जेम परिवारनी वृद्धि थती नथी
अने तेने फूल–फळ आवतां नथी; तेम धर्मरूपी वृक्षनुं मूळियुं सम्यग्दर्शन छे, ते सम्यग्दर्शनरूपी मूळियुं जेने नष्ट थयुं
छे तेने धर्मनी उत्पत्ति थती नथी, चारित्ररूपी फूल अने मोक्षरूपी फळ तेने प्राप्त थतुं नथी.
(१४४) वस्तु स्वभावनी स्वतंत्रता अने सम्यग्दर्शनप्रगट करवानो उपाय
कोई जीव बाह्यथी तो मुनिपणुं पाळे, मूळगुण धारण करे. पींछी अने कमंडळ सिवाय कांई न राखे, देव–
गुरु–शास्त्रनी श्रद्धा करे, परंतु जो वस्तु स्वभावनी स्वतंत्रता न समजे अने एक द्रव्य बीजा द्रव्यने आधीन माने
तो तेने तत्त्वनी यथार्थ श्रद्धा नथी अने तेना आत्माने धर्मनो लाभ किंचित् नथी, आत्माना कल्याणनो मार्ग तेणे
जाण्यो नथी.