Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 21 of 29

background image
ः २०४ः आत्मधर्मः खास अंक
आ जगतमां छ प्रकारना द्रव्यो छे, दरेक द्रव्यो भिन्न भिन्न छे, भिन्नपणुं कहेतां ज स्वतंत्रता साबित थाय छे.
कोई एम माने के कोई वस्तुनुं कार्य पर द्रव्यनी उपस्थितिने लीधे थाय छे, तो एम माननार वस्तुस्वभावनी साची
श्रद्धाथी भ्रष्ट छे–एटले के जैनदर्शनथी भ्रष्ट छे. स्वतंत्र द्रव्यनुं कार्य पण स्वतंत्र पणे ज थाय छे. हाथ हाल्यो ते कारणे
लाकडी ऊंची थाय छे–एम माननारे लाकडीना परमाणु द्रव्योनी स्वतंत्रता मानी नथी. लाकडी ऊंची थई ते पोतानी
स्वतंत्रताथी ज थई छे अने हाथ ऊंचो थयो ते पोतानी स्वतंत्रताथी ज थयो छे. बन्नेनी स्वतंत्रता पोतपोतामां छे. कोई
पण द्रव्यने जे पराधीन माने छे ते पोताने पण पराधीन माने छे. आत्मामां साची श्रद्धा प्रगट करवानी लायकात होय तो
प्रथम सत्देव, गुरु, शास्त्र तरफ तेनुं लक्ष गया वगर रहे नहि. अज्ञानीओ एम ज कहे छे के निमित्त होय तो लाभ थाय,
निमित्त न होय तो लाभ के कार्य न थाय. ए वात पण खोटी छे. ज्यारे जे वस्तुमां जे कार्य थवानी लायकात होय ते ज
समये ते वस्तुमां ते कार्य थाय ज. अने ते वखते योग्य उपस्थित पदार्थने निमित्त कहेवाय. आवुं वस्तु स्वरूप नहि
समजनार, साचा जैन संप्रदायनी बाह्य मान्यता धरावता होय तोपण ते दर्शनभ्रष्ट छे. नव तत्त्वने बराबर जाणे, पुण्यने
पुण्य तरीके जाणे पण तेने धर्म न जाणे, शरीरनी क्रियानो कर्ता आत्माने न माने–ते पण व्यवहार श्रद्धा छे, अने ए बधा
भेद–भंगनुं लक्ष छोडीने अभेद आत्मानी निर्विकल्प श्रद्धा ते ज परमार्थ सम्यग्दर्शन छे. जो व्यवहार श्रद्धाने
परमार्थश्रद्धानुं कारण मानीने ते व्यवहारमां ज अटकी जाय तो तेने पण धर्म थतो नथी केम के तेने श्रद्धारूपी मूळ सडेलुं छे.
(१४प) जैनदर्शन
जेओ परद्रव्योथी आत्मानुं भेदविज्ञान करता नथी तथा राग, निमित्त वगेरे हुं नहि, हुं अविकार चैतन्य छुं एवी
प्रतीतिपूर्वक असंगस्वभावनो अनुभव करता नथी अने मात्र विकारनो ज अनुभव करे छे ते पण जैनदर्शनथी बाह्य छे.
लोको मात्र संप्रदायथी ज जैनदर्शनने माने छे, पण आत्मस्वभावनी श्रद्धा ए ज साचुं जैनदर्शन छे–ए वात भूली जाय
छे. समयसारजीनी १प मी गाथामां कह्युं छे के जे शुद्ध आत्माने देखे छे ते समस्त जैनशासनने देखे छे.
(१४६) मूलं नास्ति कुतः शाखा?
सनातन दिगंबर जैन संप्रदायमां जन्मे अने साचा देव–गुरु–शास्त्रने माने एटले तेमां केटलाको सम्यग्दर्शन
मानी बेसे छे अने झट पडिमाग्रहण अने त्याग करवा मंडी पडे छे; पण भाई रे, तारा आत्मानो स्वभाव परवस्तुना
ग्रहण त्याग रहित छे एनी ओळखाण वगर सम्यग्दर्शन होय नहि. सम्यग्दर्शन वगर शेनी पडिमा अने कोनो त्याग?
हजी साची समजणरूपी मूळ तो छे नहि तो व्रत, पडिमा अने त्यागरूपी डाळी क्यांथी फूटवा मांडी? ‘
मूलं नास्ति कुतः
शाखा’ तेम हजी भेदज्ञानवडे स्वभाव शुं अने परभाव शुं ए जाण्या वगर कोनो त्याग करीश?
(१४७) मात्र संप्रदायनी बाह्य श्रद्धा वडे मिथ्यात्व टळे नहि.
वस्त्र सहित मुनिपणुं न होय, स्त्रीने मोक्ष न होय एवी एवी बहारनी वात सांभळीने हरख आवे, पण आत्मा
पोते पोताना स्वभावने न समजे त्यां सुधी तो ते पण अन्यमतिनी माफक मिथ्याद्रष्टि छे.
(१४८) जैनधर्म
भाव पाहुडनी ८३मी गाथामां कह्युं छे के अन्यमतिओ तथा लौकिकजनो व्रत, पूजा अने पुण्यादिने जैनधर्म माने
छे. परंतु ए तो बधो राग छे, राग ते जैनधर्म नथी. जैनशासनमां व्रत–पूजादिना रागने पुण्य कहेवामां आव्युं छे पण
धर्म कहेवामां आव्यो नथी. रागरहित परिपूर्ण स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान अने वीतरागता ते ज जैनधर्म छे.
(१४९) आत्मकल्याणनी खातर जगतनी दरकार छोडी देवी जोईए.
आ मार्ग तो आगम, युक्ति, प्रमाण अने स्वानुभवथी सिद्ध थाय छे; जगतमां माटीना ठाम लेवा जाय त्यां तेनी
परीक्षा करे अने आत्माना कल्याणने माटे साचा देवगुरुशास्त्रनी परीक्षा करीने ओळखे नहि. त्यां जे कूळमां जन्म्यो ते
कूळना रिवाज मुजब देव–गुरु–शास्त्रने मानी ल्ये तेने धर्मनी दरकार नथी. घणा कहे छे के लौकिकमां आबरू राखवा खातर
पण कूळधर्मना देव–गुरु–धर्मने छोडाय नहि, पण भाई रे असत्ना पोषण करी करीने तुं तारा आत्मानुं ज अहित करी
रह्यो छो अने निगोदनी तैयारी करी रह्यो छो, ते वखते तारी आबरू क्यां रहेशे? जगतने खातर पोताना
आत्मकल्याणनो मार्ग छोडाय नहि, पण आत्मकल्याण माटे जगतनी दरकार छोडी देवी जोईए.