Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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प्रथमश्रावणः२४७३ः २०७ः
सामर्थ्यने धारे छे तथा अनंत सुखवडे निराकुल परमानंदने अनुभवे छे, अने सर्वथा सर्व राग–द्वेषादि
विकारभावोथी रहित थई शांत रसरूप परिणम्या छे. आत्मानी एवी निर्मळदशा थतां चार घातिकर्मोनो स्वयं क्षय
थयो छे. वळी क्षुधा–तृषादि समस्त दोषोथी मुक्त थई तेओ देवाधिदेवपणाने प्राप्त थाय छे, आयुध–अंबरादि वा
अंग विकारादिक जे काम–क्रोधादि निंद्यभावोनां चिह्न छे तेथी रहित तेमनुं परमौदारिक शरीर थयुं छे. तेमनां
वचननां निमित्ते लोकमां धर्मतीर्थ प्रवर्ते छे अने तेथी पात्र जीवोनुं कल्याण थाय छे. लौकिक जीवोने प्रभुत्व
मानवाना कारणरूप अनेक अतिशय तथा अनेक प्रकारना वैभवनुं तेमने संयुक्तपणुं होय छे. पोताना हितने अर्थे
श्रीगणधर–इन्द्रादिक उत्तम जीवो तेमनुं सेवन करे छे. ए कारणोए सर्व प्रकारे पूजवा योग्य श्री अरिहंत परमेष्ठी छे.
श्री सिद्ध परमेष्ठीनुं स्वरूप–उपर कह्या मुजब जे गृहस्थ अवस्था तजी निश्चयरत्नत्रयरूप मुनिधर्म–
साधनवडे अनंत चतुष्टय भाव प्रगट करी, केटलोक काळ वीत्ये पूर्ण शुद्धतां प्रगटतां परमौदारिक शरीरने पण छोडी
ऊर्ध्वगमन स्वभावथी लोकना अग्रभागमां जई जे बिराजमान थया छे ते सिद्ध भगवान छे. संपूर्ण विकारनो नाश
थवाथी पूर्ण निज शुद्धतानी तेमने सिद्धि थई छे. चरम एटले के अंतिम शरीरथी किंचित् न्यून पुरुषाकारवत् जेना
आत्मप्रदेशोनो आकार अवस्थित थयो छे. समस्त ज्ञान–दर्शनादिक आत्मीक गुणो संपूर्ण पणे स्वभावने प्राप्त थया
छे, एक क्षेत्रावगाहरूप जे कर्मो हता तेनो पण त्यां (सिद्ध दशामां) स्वयं अभाव थयो छे, केम के आत्मानी पूर्ण
शुद्धिने अने कर्मोना अभावने एवो निमित्त–नैमित्तिक संबंध छे, तेमने समस्त अमूर्तत्त्वादिक आत्मीक धर्मो प्रगट
थया छे; भाव कर्मोनो अभाव थवाथी निराकुल आनंदमय शुद्ध स्वभावरूप परिणमन तेमने थई रह्युं छे. तेमना
ध्यान वडे भव्य जीवोने स्वद्रव्य–परद्रव्यनुं तथा औपाधिक–स्वाभाविक भावोनुं विज्ञान थाय छे, अने ते वडे पोताने
सिद्धसमान थवानुं साधन थाय छे. साधवायोग्य पोतानुं शुद्धस्वरूप दर्शाववा माटे तेओ प्रतिबिंब समान छे, तथा
तेओ कृतकृत्य थया छे, तेथी ए ज प्रमाणे अनंतकाळ पर्यंत रहे छे. एवी दशाने पामेला श्री सिद्ध परमेष्ठी छे.
आचार्य, उपाध्याय अने साधुनुं स्वरूप–जे सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक वीरागी बनी, समस्त परिग्रह छोडी,
शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करी, अंतरंगमां तो ए शुद्धोपयोग वडे पोते पोताने अनुभवे छे, परद्रव्योमां
अहंबुद्धि धारता नथी; पोताना ज्ञानादिक स्वभावोने ज पोताना माने छे, परभावोमां ममत्व करता नथी, पर द्रव्यो
वा तेना स्वभावो ज्ञानमां प्रतिभासे छे तेने जाणे छे तो खरा, परंतु तेने इष्ट–अनिष्ट मानी तेओ रागद्वेष करता
नथी. शरीरनी अनेक अवस्था थाय छे–बाह्य अनेक प्रकारनां निमित्तो बने छे परंतु त्यां कंई पण सुख–दुःख तेओ
मानता नथी. वळी पोताने योग्य बाह्यक्रिया जेम बने छे तेम बने छे परंतु तेने खेंची ताणी करवानो भाव तेओ
करता नथी. पोताना उपयोगने तेओ बहु भमावता नथी, पण उदासीन थई निश्चलवृत्तिने धारण करे छे. कदाचित्
मंद रागना कारणे शुभोपयोग पण थाय छे, परंतु ए रागभावने पण हेय जाणी दूर करवानो उद्यम करे छे, तीव्र
कषायना अभावथी हिंसादिरूप अशुभोपयोगपरिणतिनुं तो तेमने अस्तित्व ज रह्युं नथी; एवी अंतरंग अवस्था
थतां तेना अविनाभावपणे थती बाह्य दिगंबर सौम्यमूद्राधारी थया छे. शरीरसंस्कारादि विक्रियाथी तेओ रहित थया
छे. वनखंडादि विषे तेओ वसे छे, अठ्ठावीस मूळगुणोनुं तेओ अखंडित पालन करे छे, बावीस प्रकारना परिषहजय
प्राप्त करे छे, शुभाशुभ इच्छाना निरोधरूप तपने तेओ आदरे छे. कदाचित् अध्ययनादिक बाह्य धर्मक्रियामां तेओ
प्रवर्ते छे. कोई वेळा मुनिधर्मने योग्य आहार–विहारादि क्रियामां सावधान थाय छे. ए प्रमाणे जे जैनमुनि छे ते
सर्वनुं एवुं ज स्वरूप होय छे.
तेओमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी अधिकता वडे प्रधानपदने पामी जेओ संघमां नायक थया छे,
मुख्यपणे तो निर्विकल्प स्वरूपाचरण विषे ज जेओ निमग्न छे परंतु कदाचित् धर्म लोभी अन्य जीवादिकोने देखी
राग अंशना कारणे करुणाबुद्धि थाय तो तेमने धर्मोपदेश आपे छे, दीक्षाग्राहकने दीक्षा आपे छे तथा जे पोताना दोष
प्रगट करे तेने प्रायश्चितविधिवडे शुद्ध करे छे एवा आचरण करवा–कराववावाळा श्री आचार्य परमेष्ठी छे.
वळी ते मुनिओमां जे घणां जैनशास्त्रना ज्ञाता होई संघमां पठन–पाठनना अधिकारी बन्या होय, समस्त
शास्त्रना प्रयोजनभूत अर्थने जाणी एकाग्र थई जे पोताना स्वरूपने ध्यावे छे, परंतु कदाचित् कषाय अंशना