Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २०८ः आत्मधर्मः खास अंक
कारणे त्यां उपयोग न थंभे तो आगमने पोते भणे छे तथा अन्य धर्मबुद्धिवाळाने भणावे छे. ए प्रमाणे समीपवर्ती
भव्यजीवोने अध्ययन कराववावाळा श्री उपाध्याय परमेष्ठी छे.
ए बे (–आचार्य तथा उपाध्याय) पदवी धारक विना अन्य समस्त जे मुनिपदना धारक छे,
आत्मस्वभावने साधे छे, पोतानो उपयोग परद्रव्यमां इष्ट–अनिष्टपणुं मानी फसाय नहि वा भागे नहि तेम
उपयोगने साधे छे. स्वरूपमां स्थिर न रही शके त्यारे भक्तिवंदनादिक कार्यमां पण प्रवर्ते छे, एवा आत्मस्वभावना
साधक साधु परमेष्ठी छे.
ए प्रमाणे ए अर्हंतादिकनुं स्वरूप वीतराग विज्ञानमय छे, ए वडे ज अर्हंतादिक स्तुति योग्य महान थया
छे. जीवतत्त्वथी तो सर्व जीवो समान छे, परंतु रागादि विकारवडे तथा ज्ञाननी हीनता वडे जीव निंदायोग्य थाय छे.
अर्हंत–सिद्ध भगवानने तो संपूर्ण रागादिकनो नाश तथा ज्ञाननी संपूर्णता थवाथी संपूर्ण वीतरागविज्ञान प्रगटरूप
होय छे; तथा आचार्य, उपाध्याय अने साधुने एक देश रागादिकनी हीनता तथा ज्ञाननी विशेषता थवाथी एकदेश
वीतरागविज्ञानभाव संभवे छे माटे ए पंचपरमेष्ठी स्तुति योग्य महान जाणवा. आ पंचपरमेष्ठीमां श्री अरिहंत
अने सिद्ध भगवान ए बे देव छे अने आचार्य–उपाध्याय तथा साधु ए त्रणे गुरु छे.
बीजा प्रश्ननो जवाब
. मंगळ करवावाळाने सहायता नहि करवामां तथा मंगळ न करनारने दंड न आपवामां जिनशासनना
भक्त देवादिक निमित्त बनतां नथी तेनुं कारण ए छे के–जीवोने सुख–दुःख थवानुं खरुं कारण पोतानी वर्तमान
लायकात छे, निमित्तकारण पोतानां कर्मोनो उदय छे अने ते अनुसार बाह्य संयोग–वियोग स्वयं बनी आवे छे,
माटे जेने पापनो उदय होय तेने देवो के कोई अन्य सहायतानुं निमित्त बनतुं नथी तथा जेने पुण्यनो उदय होय तेने
दंडनुं कोई निमित्त बनतुं नथी.
देवादिक छे तेओ क्षायोपशमिक ज्ञानथी सर्वने युगपत् जाणी शकता नथी तेथी मंगळ करनारने जाणवानुं
कोई देवादिकने कोई काळमां बने छे माटे जो तेना जाणवामां ज न आवे तो सहाय के दंड आपवानो भाव ज तेने
केम थाय? कोई वेळा जाणपणुं होय ते वेळा पोतानामां जो अतिमंद कषाय होय तो सहाय वा दंड देवाना परिणाम
ज थता नथी अने जो तीव्र कषाय होय तो धर्मानुराग थतो नथी. वळी मध्यम कषायरूप कोई देवने ए कार्य करवाना
परिणाम थाय छतां पोते मदद आपी शकशे नहि एवो विचार आवे तो ते सहाय के दंड आपवानुं निमित्त थाय
नहि. पोतानी शक्ति छे एम लागे, धर्मानुरागरूप मंदकषायना कारणे तेवा ज परिणाम थाय अने ते समयमां अन्य
जीवना धर्म–अधर्मरूप कर्तव्यने जाणे तो कोई देवादिक कोई धर्मात्माने सहाय करे वा कोई अधर्मीने दंड दे. पण ए
प्रमाणे कार्य थवानो कोई नियम नथी.
बाह्य अनुकूळ संयोगरूप मदद के बाह्य प्रतिकूळतारूप दंड कोई आपवा समर्थ नथी. कोई धर्मात्माने पुण्यनो
योग होय तो बाह्य अनुकूळ संयोगो ते वखते जे मळवा योग्य होय ते मळे, पण धर्मात्मा कोई बाह्य संयोगथी
पोताने लाभ–नुकशान थाय एम मानता नथी. धर्मशास्त्रोनी रचना थवी ते पुद्गल द्रव्यनुं कार्य छे, पुद्गलद्रव्योनुं
धर्मशास्त्रनी रचनारूपे परिणमन थवा योग्य होय तो स्वयं थाय छे, ते वखते धर्मात्मा पुरुषोनो विकल्प स्वयं त्यां
निमित्तपणे होय छे. कोई ते कार्यमां विघ्नरूप थवा मागे, परंतु जो ते कार्य पूरुं थवा योग्य होय तो कोई वखते
जैनधर्मना अनुरागी देवोने ते विघ्न टाळवानो भाव थई आवे छे अने ते विघ्न टळवा लायक संयोगो बनी जतां
विघ्न दूर थाय छे. एवी घटना बने त्यारे ते देवोए सहायता करी एम उपचारथी कहेवाय छे.
. जे आगम मोक्षमार्गनो प्रकाश करे ते ज आगम वांचवा–सांभळवा योग्य छे, कारण के संसारमां जीव
नाना प्रकारनां दुःखोथी पीडित छे. जो शास्त्ररूपी दीपक वडे ते मोक्षमार्गने पामे तो ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपी
मोक्षमार्गमां गमन करी ए दुःखोथी मुक्त थाय. हवे मोक्षमार्ग तो एक वीतरागभाव छे माटे जे शास्त्रोमां कोई
प्रकारे रागद्वेषमोहभावोनो निषेध करी वीतरागभावनुं प्रयोजन प्रगट कर्युं होय ते ज शास्त्रो– वांचवा–सांभळवा
योग्य छे, पण जे शास्त्रोमां शृंगार–भोग कुतूहलादि पोषी रागभावनुं तथा हिंसायुद्धादिक पोषी द्वेषभावनुं वा
अतत्त्वश्रद्धान पोषी मोहभावनुं प्रयोजन प्रगट कर्युं होय ते शास्त्र नथी पण शस्त्र छे. कारण जे रागद्वेष–मोहभाव
वडे जीव अनादिथी दुःखी थयो तेनी वासना तो जीवने वगर शीखवाडे पण हती ज अने वळी आ