Atmadharma magazine - Ank 045a
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २१०ः आत्मधर्मः खास अंक
(६) देशसंयमः– जीवद्रव्यना चारित्रगुणनो अविकारी पर्याय–क्षायोपशमिकभाव.
(७) लब्धिः– जीवद्रव्यना ज्ञानगुणनो पर्याय छे. मिथ्याज्ञाननी अपेक्षाए ते विकारी छे अने सम्यग्ज्ञाननी
अपेक्षाए ते अविकारी छे. क्षायोपशमिकभाव.
(८) उपयोगः– जीवद्रव्यना ज्ञान–दर्शनगुणनो पर्याय छे. मिथ्याज्ञाननी अपेक्षाए विकारी अने
सम्यग्ज्ञाननी अपेक्षाए अविकारी छे. क्षायोपशमिकभाव; अने केवळज्ञानीनी अपेक्षाए क्षायिकभाव.
पांचमा प्रश्ननो उत्तर
. दर्शन उपयोगना चार प्रकारः–चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवळदर्शन. मतिज्ञान पहेलां चक्षु
अने अचक्षुदर्शन.
श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक ज होय छे. तेथी श्रुतज्ञान पहेलां दर्शनोपयोग न होय. अवधिज्ञान पहेलां
अवधिदर्शन होय छे.
मनःपर्ययज्ञान इहापूर्वक होय छे तेथी तेनी पहेलां दर्शनोपयोग न होय. केवळज्ञान साथे ज केवळदर्शन होय
छे.
. जगतनां बधां द्रव्योमां सामान्य गुणो अनेक होय छे तेमां मुख्य छ छे–अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व,
प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व. जगतनां बधां द्रव्योमां पारिणामिक भाव होय छे.
. उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या धर्मनुं कारण कहेवाय नहि. कारण के ते शुभ भाव छे, विकार छे तेथी धर्म कहेवाय
नहि. अभवी, मिथ्याद्रष्टिने पण शुक्ल लेश्या होय छे छतां तेने धर्मनो एक अंश पण प्रगट थतो नथी. वळी लेश्या
छे ते उदय भाव छे ने उदयभाव धर्मनुं कारण होई शके नहि. केवळी भगवानने शुक्ल लेश्या उपचारथी कही छे. पूर्वे
योग साथे लेश्यानुं सहकारीपणुं हतुं ते योग तेरमा गुणस्थाने विद्यमान होवाथी उपचारथी लेश्या कही छे. लेश्यानुं
कार्य कर्मबंध छे. भगवानने कषाय नथी तो पण योग होवाथी एक समयनो कर्मनो आस्रव छे ते अपेक्षा लक्षमां
राखी उपचारथी शुक्ल लेश्या कही छे.
छठ्ठा प्रश्ननो उत्तर
लेश्या=कषायना उदयथी अनुरंजित योगोनी प्रवृत्तिने भावलेश्या कहे छे अने शरीरना पीत, पद्मादि वर्णोने
द्रव्यलेश्या कहे छे.
योग=पुद्गल विपाकी शरीर अने अंगोपांगनामा नाम कर्मना उदयथी मनोवर्गणा, वचनवर्गणा तथा
कायवर्गणाना अवलंबनथी, कर्म–नोकर्मने ग्रहण करवानी जीवनी शक्ति विशेषने भावयोग कहे छे. ते ज
भावयोगना निमित्तथी आत्मप्रदेशना परिस्पंदनने (चंचल होवाने) द्रव्ययोग कहे छे.
विग्रहगति=एक शरीरने छोडी बीजा शरीर प्रति गमन करवाने विग्रहगति कहे छे.
सप्रतिष्ठित प्रतयेक=जे प्रत्येक वनस्पतिना आश्रये अनेक साधारण वनस्पति शरीर होय तेने सप्रतिष्ठित
प्रत्येक वनस्पति कहे छे.
संकलेश परिणाम=जीवना हिंसा, असत्यादि तीव्र कषायरूप अशुभभाव.
निर्वृत्य पर्याप्तक=पोतपोताने योग्य पर्याप्तिओनो प्रारंभ तो एकदम थाय छे, परंतु पूर्णता क्रमथी थाय छे.
ज्यां सुधी कोईपण जीवनी शरीरपर्याप्ति पूर्ण तो न होय, पण नियमथी पूर्ण होवावाळी होय, त्यां सुधी ते जीवने
निर्वृत्य पर्याप्तक कहे छे.
श्री जैन दर्शन शिक्षण वर्ग– परीक्षा
समयः ९–१प थी १०–३० वर्ग ता. २८–प–४७
(आत्मसिद्धि)
१. नीचेना विषय उपर लगभग १प लीटीनो निबंध लखोः १२
“शुं कारणे आ जीव अनंत दुःख पाम्यो छे? ते अनंत दुःखथी मुक्त थवा जीवे शुं करवुं जोईए?”
२. पांचमांथी कोई पण त्रण प्रश्नना जवाब लखो. १२
(१) मतार्थी जीव देव–शास्त्र तथा गुरुनुं केवुं स्वरूप समजे छे ते टूंकाणमां जणावो.
(२) शां चिह्नो वडे सद्गुरु ओळखाय? तेमनो तमने वियोग होय त्यारे तमे शुं करशो?
(३) (क) आत्मा नित्य छे ते सिद्ध करनारुं एक द्रष्टांत आपो.
(ख) आत्मानां सदानां एंधाण दर्शावनारी गाथा लखो.
(४) शुं करतां मोक्षस्वभाव ऊपजे? मोक्षमां जीवने शुं होय अने शुं न होय?